Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 231
________________ १७८ विसुद्धिमग्ग तत्रायं नयो- दसहाकारेहि अप्पनाकोसल्लं इच्छितब्बं : १. वत्थुविसदकिरियतो २. इन्द्रियसमत्तपटिपादनतो, ३. निमित्तकुसलतो, ४. यस्मि समये चित्तं पग्गहेतब्बं तस्मि समये चित्तं पग्गहाति, ५. यस्मि समये चित्तं निग्गहेतब्बं तस्मि समये चित्तं निग्गण्हाति, ६. यस्मि समये चित्तं सम्पहंसितब्बं तस्मि चित्तं सम्पहंसेति, ७. यस्मि समये चित्तं अज्झपेक्खितब्बं तस्मि समये चित्तं अज्जुपेक्खति, ८. अंसमाहितपुग्गलपरिवज्जनतो, ९. समाहितपुग्गलसेवनतो, १०. तदधिमुत्तितोति । (१) तत्थ वत्थुविसदकिरिया नाम अज्झत्तिकबाहिरानं वत्थूनं विसदभावकरणं । यदा हिस्स केसनखलोमानि दीघानि होन्ति, सरीरं वा सेदमलग्गहितं, तदा अज्झत्तिकं वत्थु अविसदं होति अपरिसुद्धं । यदा पन अस्स चीवरं जिणं किलिट्ठ दुग्गन्धं होति, सेनासनं वा उक्लापं होति, तदा बाहिरवत्थु अविसदं होति अपरिसुद्धं । अज्झत्तिकबाहिरे च वत्थुम्हि अविसदे उप्पन्नेसु चित्तचेतसिकेसु जाणं पि अपरिसुद्धं होति, अपरिसुद्धानि दीपकपल्लिकवट्टितेलानि निस्साय उप्पन्नदीपसिखाय ओभासो विय। अपरिसुद्धेन च जाणेन सङ्घारे सम्मसतो सङ्घारा पि आविभूता होन्ति, कम्मट्ठानमनुयुञ्जतो कम्मट्ठानं पिवुद्धिं विरूहि वेपुल्लं न गच्छति । विसदे पन अज्झत्तिकबाहिरे वत्थुम्हि उप्पन्नेसु चित्तचेतसिकेसु आणं पि विसदं होति परिसुद्धं, परिसुद्धानि दीपकपल्लिकवट्टितेलानि निस्साय उप्पन्नदीपसिखाय ओभासो विय। परिसुद्धेन च ञाणेन सङ्घारे सम्मसतो सङ्घारा पि विभूता होन्ति, कम्मट्ठानमनुयुञ्जतो कम्मट्ठानं पि वुद्धिं विरूहि वेपुल्लं गच्छति । अर्पणकौशल का सम्पादन करना चाहिये। इसमें यह विधि है-दस प्रकार के अर्पणाकौशल प्राप्त करने की इच्छा करनी चाहिये (१) वस्तु को स्वच्छ करना, (२) इन्द्रियों का सन्तुलन (समत्व) बनाये रखना, (३) निमित्त में कुशलता प्राप्त करना, (४) चित्त को प्रगृहीत रखने के समय प्रगृहीत रखना, (५) चित्त के निग्रह के समय उसका दमन करना, (६) चित्त को प्रफुल्ल रखने के समय उसको प्रफुल्ल रखना, (७) चित्त की उपेक्षा के समय उपेक्षा करना, (८) जो असमाहित चित्त हो ऐसे पुद्गल का त्याग करना, (९) " समाहितचित्त पुद्गल का सेवन (=सम्पर्क) करना, (१०) उस समाधि के प्रति अधिमुक्ति (= निश्चय) करना । (१) इनमें, वस्तु को स्वच्छ करने से तात्पर्य है - आन्तरिक एवं बाह्य वस्तुओं को स्वच्छ करना। जैसे कि, जब इस साधक के बाल, नाखून, रोएँ बढ़े हुए होते हैं या शरीर पसीने से मैला होता है; तब आन्तरिक वस्तु (मन) अस्वच्छ, अपरिशुद्ध होती है। जब उसका चीवर फटा-पुराना, गन्दा, दुर्गन्धयुक्त होता है या शयनासन गन्दा होता है, तब बाह्य वस्तु (शरीर) अस्वच्छ, अपरिशुद्ध होती है! जब आन्तरिक एवं बाह्य वस्तुएँ अस्वच्छ होती हैं, तब अपरिशुद्ध दीपक, बत्ती ( एवं ) तैल के आश्रय से उत्पन्न दीप - शिखा के प्रकाश के समान उत्पन्नचित्त - चैतसिकों में ज्ञान भी अपरिशुद्ध होता है । अपरिशुद्ध ज्ञान द्वारा समझने का प्रयास करने पर संस्कार ही स्पष्ट होते हैं, कर्मस्थान में लगने, कर्मस्थानवृद्धि, विकास एवं विपुलता को प्राप्त नहीं होता । आन्तरिक एवं बाह्य वस्तुओं के स्वच्छ होने पर, उत्पन्न चित्त- चैतसिकों में ज्ञान भी, परिशुद्ध दीपक, बत्ती, तेल के आश्रय से उत्पन्न दीपशिखा के प्रकाश के समान स्वच्छ एवं परिशुद्ध होता है। परिशुद्ध ज्ञान द्वारा संस्कारों को समझने का प्रयास करने पर संस्कार भी स्पष्ट होते हैं, कर्मस्थान में लगने पर साधक कर्मस्थान की वृद्धि, विकास एवं विपुलता की ओर बढ़ता है।

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