Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 227
________________ १७४ विसुद्धिमग्ग . १२. तस्सेवं भावयतो यदा निम्मीलेत्वा आवजन्तस्स उम्मीलितकाले विय आपाथं आगच्छति, तदा उग्गहनिमित्तं जातं नाम होति। तस्स जातकालतो पट्ठाय न तस्मि ठाने निसीदितब्बं । अत्तनो वसनट्ठानं पविसित्वा तत्थ निसिन्नेन भावेतब्बं । पादंधोवनपपञ्चपरिहारत्थं पनस्स एकपटलिकुपाहना च कत्तरदण्डो च इच्छितब्बो। अथानेन सचे तरुणो समाधि केनचिदेव असप्पायकारणेन नस्सति, उपाहना आरुय्ह कत्तरदण्डं गहेत्वा तं ठानं गन्त्वा निमित्तं आदाय आगन्त्वा सुखनिसिनेन भावेतब्बं, पुनप्पुनं समनाहरितब्बं, तक्काहतं वितक्काहतं कातब्बं । तस्स एवं करोन्तस्स अनुक्कमेन नीवरणानि विक्खम्भन्ति, किलेसा सन्निसीदन्ति, उपचारसमाधिना चित्तं समाधियति, पटिभागनिमित्तं उप्पज्जति।। १३. तत्रायं पुरिमस्स च उग्गहनिमित्तस्स इमस्स च विसेसो-उग्गहनिमित्ते कसिणदोसो पायति। पटिभागनिमित्तं थविकतो नीहटादासमण्डलं विय सुधोतसङ्खथालं विय वलाहकन्तरा निक्खन्तचन्दमण्डलं विय, मेघमुखे बलाका विय, उग्गहनिमित्तं पदालेत्वा निक्खन्तमिव ततो सतगुणं सहस्सगुणं सुपरिसुद्धं हुत्वा उपट्ठाति। तं च खो नेव वण्णवन्तं, न सण्ठानवन्तं । यदि हि तं ईदिसं भवेय्य, चक्षुविज्ञेय्यं सिया ओळारिकं सम्मसनूपगं तिलक्खणब्भाहतं । न पनेतं तादिसं। केवलं हि समाधिलाभिनो उपट्ठानकारमत्तं सञ्जजमे ति। 'पृथ्वी'-इस प्रकार ही भावना करनी चाहिये। कुछ देर आँखें खोलकर तो कुछ देर बन्द करके निरीक्षण-मनन करते रहना चाहिये। जब तक उद्ग्रहण-निमित्त उत्पन्न नहीं हो जाता, तब तक इसी विधि से सौ बार, हजार बार या उससे भी अधिक बार भावना करनी चाहिये। १२. उसके इस प्रकार भावना करते रहने पर, जब उसे आँखें बन्द करके मनन करने पर आँखें खुली रहने के समय के जैसा ही निमित्त स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगे तब समझना चाहिये कि उद्ग्रह-निमित्त उत्पन्न हो गया। उसके उत्पन्न हो जाने के समय से उस स्थान पर नहीं बैठना चाहिये। अपने निवासस्थान में प्रवेश कर वहाँ बैठ कर भावना करनी चाहिये। पैर धोने के सङ्कट से बचने के लिये यदि इसके पास एक पैरों को ढंकने वाला जूता और एक छड़ी हो तो अच्छा है। एवं यदि इसकी तरुण ( नवोदित) समाधि किसी भी प्रतिकूल कारण से नष्ट हो जाती है तो जूता पहन कर छड़ी लेकर उस स्थान पर जाकर निमित्त को लेकर फिर आकर सुखपूर्वक बैठकर ही भावना करनी चाहिये, पुनः पुनः ध्यान करना चाहिये, तर्क-वितर्क करना चाहिये। ऐसा करते रहने पर उसके नीवरण क्रमशः दूर हो जाते हैं, क्लेश बैठ (=दब) जाते हैं, उपचारसमाधि द्वारा चित्त समाहित हो जाता है (एवं) प्रतिभागनिमित्त (=कसिणमण्डल के बराबर परिशुद्ध, वैसा ही निमित्त) उत्पन्न होता है। १३. पहले के उस उद्ग्रहनिमित्त और इस प्रतिभागनिमित्त में यह अन्तर है-उद्ग्रहनिमित्त में कसिण का दोष जान पडता है। किन्त प्रतिभागनिमित्त खोली में से निकाले गये गोलाकार दर्पण के समान, सीप से बनायी गयी थाली के समान, बादलों के बीच से निकले चन्द्रमण्डल के समान, मेघों के बीच बलाका (=बगुले) के समान प्रभास्वर, उद्ग्रहनिमित्त को भेदकर निकलते हुए के समान उस उद्ग्रहनिमित्त से सौ गुना, हजार गुना परिशुद्ध रूप में प्रतीत होता है। और वह भी न तो रंग के साथ, न संस्थान (=आकृति) के साथ । यदि वह ऐसा न भी हो तो आँखों से ज्ञान होने योग्य, स्थूल, पकड़ने

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