Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 9
________________ (8) सहज निमित्त-नैमित्तिक-सम्बन्ध विश्व के पदार्थों में पाया जाता है। निमित्त -नैमित्तिकरूप से प्रवर्तमान पदार्थों में लेशमात्र भी परतन्त्रता नहीं है, सब अपने अपने विशेषरूप से ही स्वतन्त्रतया एवं न्याससङ्गतरूप से परिणमित होते रहते हैं। ऐसा होने से जीवद्रव्य देहादि की क्रिया तो कर ही नहीं सकता, वह मात्र अपने विशेष को ही कर सकता है। सङ्कल्प-विकल्परूप विशेष दुःखमार्ग है, विपरीत पुरुषार्थ है। जगत् के स्वरूप को न्यायसङ्गत और स्वतन्त्र जानकर तथा यह निर्णय करके कि पर में अपना कोई कर्तृत्व नहीं है, पर से भिन्न निजद्रव्य की श्रद्धारूप से परिणमित होकर, उसमें लीन हो जाने रूप जो विशेष है, वही सुखपन्थ है, वही परम पुरुषार्थ है। . अज्ञानियों को परपदार्थ का परिवर्तन कर सकने में ही पुरुषार्थ भासित होता है, सङ्कल्प-विकल्पों की तरङ्गों में ही पुरुषार्थ प्रतीत होता है, परन्तु जिसमें विश्व के सर्व भावों की नियतता का निर्णय गर्भित है - ऐसी ज्ञान-स्वभावी आत्मा की श्रद्धा करके उसमें डूब जाने का जो यथार्थ परम पुरुषार्थ है, वह उसके ध्यान में ही नहीं आता। जीवों ने आगमों में से उपरोक्त बातों की धारणा भी अनन्तबार कर ली है, परन्तु सर्व आगमों के सारभूत ज्ञानस्वभावी स्वद्रव्य का यथार्थ निर्णय करके उसकी रुचिरूप परिणमन नहीं किया। यदि उसरूप परिणमन किया होता तो संसार परिभ्रमण नहीं रहा होता। वस्तुविज्ञान की ऐसी अनेक परम हितकारक, रहस्यभूत, सारभूत बातें इस पुस्तक में समझायी गयी हैं, इसलिए इस पुस्तक का नाम वस्तुविज्ञानसार रखा गया है। पूज्य श्री कानजीस्वामी सोनगढ़ में मुमुक्षुओं के समक्ष सदा जो आध्यात्मिक प्रवचन करते हैं, उनमें से वस्तुविज्ञान के सारभूत कुछ प्रवचन इस पुस्तक में प्रकाशित किये गये हैं। जो मुमुक्षु इनमें कथित वस्तुविज्ञानसार का अभ्यास करके, चिन्तन करके, निर्वाध युक्तिरूप प्रयोग से सिद्ध करके, निर्णीत करके चैतन्य स्वभाव की

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