Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 8
________________ प्रस्तावना यथार्थ वस्तुविज्ञान का रहस्य प्राप्त किये बिना चाहे जितना प्रयत्न किया जाए, चाहे जितना व्रत, नियम, तप, त्याग, वैराग्य, भक्ति और शास्त्राभ्यास किया जाएँ तो भी जीव का एक भी भव कम नहीं होता; इसलिए इस मनुष्यभव में जीव का मुख्य कर्तव्य यथार्थतया वस्तुविज्ञान प्राप्त कर लेना है। वीतराग सर्वज्ञ के द्वारा स्वयं प्रत्यक्ष जानकर उपदिष्ट वस्तुविज्ञान विशाल है और वह अनेक आगमों में विस्तरित है। उस विशाल वस्तुविज्ञान का रहस्यभूत सार इस पुस्तक में दिया गया है। : इस पुस्तक में निम्नलिखित विषयों को स्पष्ट किया गया है - विश्व का प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है। पदार्थ स्वयं ही अपने विशेषरूप से परिणमित होता है। विशेषरूप से परिणमित होने में अन्य किसी भी पदार्थ की उसे वास्तव में किञ्चित्मात्र भी सहायता नहीं होती, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र है। इस प्रकार प्रत्येक पदार्थ स्वतन्त्र होने पर भी विश्व में अन्धकार नहीं, प्रकाश है; अकस्मात् नहीं, न्याय है; इसलिए 'पुण्यभावरूप विशेष में परिणमित होनेवाले जीवद्रव्य को अमुक अर्थात् अनुकूल कही जानेवाली सामग्री का ही संयोग प्राप्त होता है, पापभावरूप विशेष में परिणमित होनेवाले जीवद्रव्य को अमुक अर्थात् प्रतिकूल कही जानेवाली सामग्री का ही संयोग होता है, शुद्धभावरूप विशेष में परिणमित होनेवाले जीवद्रव्य के कर्मादिक संयोग का अभाव ही होता है' - इत्यादि अनेकानेक प्रकार का

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