Book Title: Vastu Vigyansar Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain Publisher: Tirthdham Mangalayatan View full book textPage 6
________________ (5) हृदय में स्वानुभव की रुचि और पुरुषार्थ जागृत करके कुछ अंशों में सत्पुरुष के प्रत्यक्ष उपदेश जैसा चमत्कारिक कार्य करते हैं - ऐसी अपूर्व चमत्कारिक शक्ति पुस्तकारूढ़ प्रवचन वाणी में कदाचित् ही दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार अध्यात्म तत्वविज्ञान के गहन रहस्य, अमृत झरती वाणी में समझाकर, साथ ही शुद्धात्मरुचि जागृत करके, पुरुषार्थ प्रेरक, प्रत्यक्ष सत्समागम की झाँकी खड़ी करानेवाले ये प्रवचन जैन साहित्य में अजोड़ हैं। प्रत्यक्ष समागम के वियोग में ये प्रवचन मुमुक्षुओं को अनन्य आधारभूत हैं। निरावलम्बन पुरुषार्थ समझाना और प्रेरित करना ही उद्देश्य होने के साथ वस्तुविज्ञान के सर्वाङ्ग स्पष्टीकरणरूप इन प्रवचनों में समस्त शास्त्रों के समस्त प्रयोजनभूत तत्वों का तलस्पर्शी दर्शन आ गया है। मानो श्रुतामृत का सुख सिंधु ही इन प्रवचनों में हिलोरे ले रहा है। यह प्रवचन ग्रन्थ शुद्धात्मतत्व की रुचि उत्पन्न करके, पर के प्रति रुचि नष्ट करनेवाला परम औषध है, स्वानुभूति का सुगम पथ है और भिन्न-भिन्न कोटि के सभी आत्मार्थियों का अत्यन्त उपकारक है। परम पूज्य गुरुदेव ने यह अमृतसागर समान प्रवचनों की भेंट देकर देश-विदेश में स्थित मुमुक्षुओं को निहाल कर दिया है। . स्वरूपसुधा प्राप्ति के अभिलाषी जीवों को इन परम पवित्र प्रवचनों का बारम्बार मनन करना योग्य है। यह संसाररूपी विषवृक्ष को छेदने के लिए अमोघ शस्त्र है; जो डाली और पन्नों को छुए बिना मूल पर ही सीधा प्रहार करता है। इस अल्पायुवाले मनुष्यभव में जीव का प्रथम में प्रथम कर्तव्य एक निज शुद्धात्मा का बहुमान, प्रतीति और अनुभव है; उन बहुमानादि कराने में ये प्रवचन परम निमित्तभूत हैं। इन प्रवचनों का प्रकाशन पूज्य गुरुदेवश्री की उपस्थिति में सोनगढ़ ट्रस्ट द्वारा बहुत वर्षों पूर्व हुआ था। जिनका सङ्कलन ब्रह्मचारी हरिभाई जैन, सोनगढ़ ने किया था। उन्हीं प्रवचनों को भाषा इत्यादि की दृष्टि से पण्डितPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 138