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चारित्र
१५. कषायों के कृश करने का निमित्त चरणानुयोग द्वारा निर्दिष्ट यथार्थ आचरण का पालन करना है।
१६. चरणानुयोग ही आत्मा को अनेक प्रकार के रोगों से बचाने में रामबाण औषधि का कार्य करता है।
१७. जिनकी प्रवृत्ति चरणानुयोग द्वारा निर्मल हो गई है वे ही स्वपर कल्याण कर सकते हैं।
१८. जिसके इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में धीरता रहती है वही संयम का पात्र है। .
१६. चारित्र का फल रागद्वेषनिवृत्ति है। यहाँ चारित्र से तात्पर्य चरणानुयोग द्वारा प्रतिपाद्य देशचारित्र और सकलचारित्र से है । जो कि कषाय को निवृत्ति रूप है प्रवृत्ति रूप नहीं । उसका लाभ जिस काल में कषाय की कृशता है उसी काल में है। __२०. संसार में वही जीव नीरोग रहता है जो अपना जीवन चारित्र पूर्वक बिताता है।
२१. वास्तव दृष्टि से चारित्र न प्रवृत्ति रूप है और न निवृत्ति रूप ही । वह तो विधि निषेध से परे अपरिमित शान्ति का दाता आत्मा का परिणाम मात्र है।
२२. रागादि निवृत्ति के अर्थ चरणानुयोग है। केवल पदार्थ का निरूपण करने मात्र से प्रयोजन की सिद्धि नहीं होता।
२३. चारित्र के विकाश में आगम ज्ञान, साधु समागम, और विद्वानों का सम्पर्क आदि किसी की आवश्यकता नहीं । वह तो ज्ञानी जीव की साहजिक प्रकृति है ।
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