Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 340
________________ २८३ भगवान् महाबीर पदार्थों से उदासीनता भी थी परन्तु चारित्र मोह के उदय से उन पदार्थों को त्यागने में असमर्थ थे परन्तु आज उन अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान कषाय के अभाव में वे पदार्थ स्वयं छूट गये । छूटे तो पहले ही थे क्योंकि भिन्न सत्ता वाले थे केवल चारित्र मोह के उदय में सम्यगज्ञानी होकर भो उनको छोड़ने में असमर्थ थे। यद्यपि सम्यगज्ञानी होने से भिन्न समझता था। आज पिता से कह दिया-"महाराज ! इस संसार का एक अणु मात्र भी पर द्रव्य मेरा नहीं !' क्योंकि "अहमिको खलु सुद्धो दसणणाण मइयो सदा रूपी । णवि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तंपि ॥" अर्थात् में एक हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञान दर्शनमय हूँ सदा अरूपी हूँ । इस संसार में परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है । मेरे ज्ञान में पर पदार्थ दर्पण की तरह विम्ब रूप से प्रतिभासित हो रहे हैं, यह ज्ञान की स्वच्छता है। अर्थात् ज्ञान की स्वच्छता का उदय है न कि ज्ञेय का अंश भी मेरे में आया हो-यह दृढ़ निश्चय है । जैसे दर्पण जो रूपी पदार्थ है, उसकी स्वच्छता स्वपराव भासिनो है। जिस दर्पण के समीप भाग में अग्नि रक्खी है उस दर्पण में अग्नि के निमित्त को पाकर उसकी स्वच्छता में अग्नि प्रतिविम्बित हो जाती है। परन्तु “क्या दर्पण में अग्नि है ?" नहीं, जब दर्पण में अग्नि नहीं तब अग्नि की ज्वाला और उष्णता भी दर्पण में नहीं । तब यह मानना पड़ेगा कि अग्नि की ज्वाला और उष्णता तो अग्नि में ही है, दर्पण में जो प्रतिबिम्ब दिख रहा है वह दर्पण की स्वच्छता का विकार है । इसी तरह ज्ञान में जो ये वाह्य पदार्थ भासमान हो रहे हैं वे वाह्य पदार्थ नहीं। वाह्य पदार्थ की सत्ता तो वाह्य पदार्थों में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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