Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 359
________________ वर्णी-वाणी भूलने योग्य भूलभव बन्धन का मूल है अपनी ही वह भूल । याके जाते ही मिटे सभी जगत का शूल ॥२३॥ हम चाहत सब इष्ट हो उदय करत कछु और । चाहत हैं स्वातन्त्र्य को परे पराई पौर ॥२४॥ सङ्कचहां में हां न मिलाइये कीजे तत्त्व विचार । एकाकी लख अात्मा हो जावो भव पार ॥२५॥ इष्ट मित्र संकोच वश करो न सत्पथ घात । नहिं तो वसु नृपसी दशा अन्तिम होगी तात ॥२६॥ परपदार्थजो चाहत निज वस्तु तुम परको तजहु सुजान । पर पदार्थ संसर्ग से कभी न हो कल्याण ॥२७॥ हितकारी निज वस्तु है पर से वह नहिं होय । पर की ममता मेंटकर लीन निजातम होय ॥२८|| उपादान निज आत्मा अन्य सर्व परिहार । स्वात्म रसिक बिन होय नहिं नौका भवदधि पार !॥२९॥ जो सुख चाहो आपना तज दे विष की बेल । पर में निज की कल्पना यही जगत का खेल ॥३०॥' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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