Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 371
________________ वर्णी-वणी ३१२ आत्मा में होते हैं वे विभाव और मतिज्ञान आदि । विभाव - ५० २७, ०५, कर्म के निमित्त से जो भाव कहलाते हैं । जैसे, क्रोध, मात्र सम्यग्ज्ञान—पृ० २८, वा० ६, सम्यग्दर्शन पूर्वक होने वाला ज्ञान । शुद्धोपयोग - पृ० ३१, वा० ३३, राग, द्वेष रहित ज्ञान व्यापार । ज्ञान क्षयोपशम - पृ० ३६, वा० ६, कर्म के कुछ क्षय व कुछ उपशम दोनों के मेल से होनेवाला आत्माका भाव ! मूर्च्छा - पृ० ३७, वा० ७, बाह्य पदार्थों में आसक्तिरूप परिणाम | निर्जरा - पृ० ३७, वा० ७, कर्मका एकदेश क्षय । -- श्रुतज्ञान - पृ० ३७, वा० ७, मुख्यतया शास्त्र व उपदेश आदि के निमित्त से होनेवाला ज्ञान । ज्ञानचेतना—पृ० ३८, वा० १६, आत्मा ज्ञान दर्शन स्वभाव है, वह राग-द्वेष से रहित है ऐसा अनुभव में आना । चारित्र - मिथ्या गुणम्थान - पृ० ३६, वा० ३, आत्मा की जिस अवस्था में विपरीत श्रद्धा रहती है वह मिध्यात्व गुणस्थान है । देशसंयम - पृ० ३६, वा०५, हिंसा आदि परिणामों का एकदेश त्याग । बाह्य आलम्बन की अपेक्षा इसे अणुव्रत भी कहते हैं । दूसरा नाम इसका देशचारित्र भी है। संयम--पृ० ३६, वा० ६, हिंसा आदि परिणामों का त्याग । चरणानुयोग - पृ० ४१, वा० १५, मुख्यतया चारित्र का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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