Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 375
________________ वर्णा-वाणी ३१६ कषाय-- __ मनोयोग-पृ० १६६, वा० १३, मन के निमित्त से आत्मप्रदेशों में क्रिया का होना। मोह यथाख्यात चारित्र-पृ० १७२, वा० २०, रागद्वेष रहित आत्मपरिणति । ___ स्वात्मानुभूति-पृ० १७२, वा० २०, अपने आत्मा का अनुभव कि मैं ज्ञान दर्शनस्वभाव हूँ ये शरीर, स्त्री, घर आदि मुझसे भिन्न हैं। दर्शनमोह-पृ० १७२, वा० २१, कर्म का एक अवान्तर भेद जिसके निमित्त से पर पदार्थो में ममकार भाव होता है। देशव्रती-पृ० १७३, वा० २५, जिसने स्वावलम्बन को एक देश जीवन में उतारना चालू किया है वह । अवती-० १७३, वा० २५, जो स्वावलम्बन के महत्व को जान कर भी जोवन में उसे अंशतः या समग्र रूप से उतारने में असमर्थ है वह । जो स्वावलम्बन के महत्व को नहीं समझा है वह तो अव्रती है ही। __मोहकम-पृ० १७३, वा० २६, कर्म का एक अवान्तर भेद जिससे जीव न तो अपनी स्वतन्त्रता का ही अनुभव करता है और न स्वावलम्बन को जीवन में उतारने में ही समर्थ होता है। रागद्वेष उपशम-पृ० १७४, वा० २, शान्त करना । अध्यात्मशास्त्र-पृ० १७४, वा०२, जिस शास्त्र में प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता का और उसके गुण धर्मो का स्वतन्त्र भाव से विचार किया गया हो वह अध्यात्म शास्त्र है। Jain Education International For Personal & Private Use Only ___www.jainelibrary.org

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