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वर्णा-वाणी
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कषाय-- __ मनोयोग-पृ० १६६, वा० १३, मन के निमित्त से आत्मप्रदेशों में क्रिया का होना। मोह
यथाख्यात चारित्र-पृ० १७२, वा० २०, रागद्वेष रहित आत्मपरिणति । ___ स्वात्मानुभूति-पृ० १७२, वा० २०, अपने आत्मा का अनुभव कि मैं ज्ञान दर्शनस्वभाव हूँ ये शरीर, स्त्री, घर आदि मुझसे भिन्न हैं।
दर्शनमोह-पृ० १७२, वा० २१, कर्म का एक अवान्तर भेद जिसके निमित्त से पर पदार्थो में ममकार भाव होता है।
देशव्रती-पृ० १७३, वा० २५, जिसने स्वावलम्बन को एक देश जीवन में उतारना चालू किया है वह ।
अवती-० १७३, वा० २५, जो स्वावलम्बन के महत्व को जान कर भी जोवन में उसे अंशतः या समग्र रूप से उतारने में असमर्थ है वह । जो स्वावलम्बन के महत्व को नहीं समझा है वह तो अव्रती है ही। __मोहकम-पृ० १७३, वा० २६, कर्म का एक अवान्तर भेद जिससे जीव न तो अपनी स्वतन्त्रता का ही अनुभव करता है
और न स्वावलम्बन को जीवन में उतारने में ही समर्थ होता है। रागद्वेष
उपशम-पृ० १७४, वा० २, शान्त करना ।
अध्यात्मशास्त्र-पृ० १७४, वा०२, जिस शास्त्र में प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता का और उसके गुण धर्मो का स्वतन्त्र भाव से विचार किया गया हो वह अध्यात्म शास्त्र है।
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