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________________ पारिभाषिक शब्दकोष ज्ञानेद्रियाँ और मन है वह संज्ञी पञ्चेन्द्रिय कहलाता है। निराकुलता शल्य-पृ० ६६, वा० ३, माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्य हैं। दान द्रव्य-दृष्टि-पृ० १०७, पंक्ति १३, अभेद-दृष्टि । पर्याय दृष्टि-पृ० १०७, पंक्ति १५, भेद-दृष्टि । तीथङ्कर-पृ० ११५, पंक्ति २२, धर्म-तीर्थ के प्रधान उपदेष्टा । स्वोपकार और परोपकार निश्चयनय-पृ० १२०, पंक्ति २, मूल पदार्थ की अपेक्षा या अभेद रूप से विचार करनेवाली दृष्टि। व्यवहारनय-पृ० १२१, पं०६, निमित्त की अपेक्षा या भेद रूप से विचार करनेवाली दृष्टि । क्षमा चारित्रमोह-पृ० १२७, बा० १, कर्म का अवान्तर भेद जिसके उदय से आत्मा समीच न चारित्र धारण करने में असमर्थ रहता है। उपवास-पृ० १३०, वा०८, दिन में सब प्रकार के भोजन का त्याग। एकासन-पृ० १३०, वा०८, दिन में एक बार भोजन । ब्रह्मचर्य--- इन्द्रिय-संयम-पृ० १४५, वा० १०, पाँच इन्द्रियों को वश में करना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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