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वणी-वाणी
निग्रन्थ-पृ० ६६, वा० २२, जो स्त्र, धन, घर, वस्त्र आदि बाह्य परिग्रह से रहित हैं और अन्तरङ्ग में जिनके मिथ्यात्व, कषाय आदि रूप परिणति का अभाव हो गया है वे निग्रन्थ हैं। सुख___ तप-पृ० ७५, वा० २७, चित्तशुद्धि पूर्वक बाह्य पालम्बन
का कम करना तप है। ____ ज्ञानावरण-पृ० ७६, वा० ३६, ज्ञान के प्रकट होने में बाधक कर्म । शान्ति
समता-पृ० ७६, वा० १०, आत्मा में राग-द्वेष रूप परिणति का न होना ही समता है।
पञ्चकल्याणक-पृ० ८३, वा० ३८, तीर्थङ्करों का गर्भ समय का उत्सव, जन्म-समय का उत्सव, दीक्षा-समय का उत्सव, ज्ञान प्राप्ति-समय का उत्सव और निर्वाण-समय का उत्सव । ____षोडश कारण-पृ० ८३, वा० ३८, तीर्थङ्कर होने के सोलह कारण । ___ अष्टाह्निका व्रत-पृ० ८३, वा० ३८, कार्तिक, फाल्गुन और अषाढ़ के अन्तिम आठ दिनों में की जानेवाली धार्मिक विधि ।
उद्यापन-पृ० ८३, वा० ३८, नैमित्तिक व्रतों की समाप्ति के समय किया जानेवाला धार्मिक उत्सव । भक्ति__ सामायिक-पृ० ८६, वा० ३, समता परिणामों का नियमित विधि के साथ अभ्यास । पुरुषार्थ
संज्ञी पञ्चेन्द्रिय-पृ० ६३, वा० १०, जिसके पाँचों
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