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________________ ३१३ पारिभाषिक शब्दकोष सकल चारित्र-पृ० ४१, वा० १६, हिंला आदि परिणामों का पूर्ण त्याग । इसे सकल संयम भी कहते हैं। श्रेणी-पृ० ४६, वा० २३, श्रेणी के दो भेद हैं-उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी । जिस अवस्था में कर्मो का उपशम किया जाता है वह उपशम श्रेणी है और जिस अवस्था में कर्मों का क्षय किया जाता है वह क्षपक श्रेणी है । ___ आठ प्रवचन मात्रिका-पृ० ४६, वा० २३, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण और व्युत्सर्ग ये पाँच समितियाँ तथा मनोगुति, वचनगुप्ति और कायगुति ये तीन गुप्तियाँ । पञ्च परमेष्ठी-पृ० ४६, वा०२५, अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु । व्यवहार धर्म-पृ० ४७, वा० २६, राग, द्वेष की निवृत्ति के बाह्य निमित्तों के आलम्बन से की गई क्रिया। मानवधर्म आत्मोद्धार-पृ० ६३, वा० २, प्रयत्न द्वारा आत्मा को मोह, राग, द्वेष आदि से रहित करना ही आत्मोद्धार है। ___ चार गति-पृ. ६४, वा० १८, नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । मनुष्यायु-पृ० ६५, वा० २१, आयुकर्म का एक भेद जिससे जीव मनुष्य योनि में उत्पन्न होता है। धर्म मोह--पृ० ६७, वा० २, विपरीन श्रद्धा । क्षोभ--पृ० ६७, वा० २, राग-द्वेषरूप परिणति । संज्ञी-पृ० ६६, वा० १७, जिनके मन है वे जीव । . असंज्ञो-पृ० ६६, वा० १७, जिनके मन नहीं है वे संसारी जीव । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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