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वर्णी-वणी
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आत्मा में होते हैं वे विभाव और मतिज्ञान आदि ।
विभाव - ५० २७, ०५, कर्म के निमित्त से जो भाव कहलाते हैं । जैसे, क्रोध, मात्र
सम्यग्ज्ञान—पृ० २८, वा० ६, सम्यग्दर्शन पूर्वक होने
वाला ज्ञान ।
शुद्धोपयोग - पृ० ३१, वा० ३३, राग, द्वेष रहित ज्ञान
व्यापार ।
ज्ञान
क्षयोपशम - पृ० ३६, वा० ६, कर्म के कुछ क्षय व कुछ उपशम दोनों के मेल से होनेवाला आत्माका भाव !
मूर्च्छा - पृ० ३७, वा० ७, बाह्य पदार्थों में आसक्तिरूप परिणाम |
निर्जरा - पृ० ३७, वा० ७, कर्मका एकदेश क्षय ।
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श्रुतज्ञान - पृ० ३७, वा० ७, मुख्यतया शास्त्र व उपदेश आदि के निमित्त से होनेवाला ज्ञान ।
ज्ञानचेतना—पृ० ३८, वा० १६, आत्मा ज्ञान दर्शन स्वभाव है, वह राग-द्वेष से रहित है ऐसा अनुभव में आना । चारित्र -
मिथ्या गुणम्थान - पृ० ३६, वा० ३, आत्मा की जिस अवस्था में विपरीत श्रद्धा रहती है वह मिध्यात्व गुणस्थान है । देशसंयम - पृ० ३६, वा०५, हिंसा आदि परिणामों का एकदेश त्याग । बाह्य आलम्बन की अपेक्षा इसे अणुव्रत भी कहते हैं । दूसरा नाम इसका देशचारित्र भी है।
संयम--पृ० ३६, वा० ६, हिंसा आदि परिणामों का त्याग । चरणानुयोग - पृ० ४१, वा० १५, मुख्यतया चारित्र का प्रतिपादन करनेवाला शास्त्र ।
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