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________________ ३११ पारिभाषिक शब्दकोष आत्मविश्वास अनन्तानन्त - पृ० २२, वा० ६, वह संख्या जो केवल अतीन्द्रिय ज्ञानगम्य है | कार्मणवर्गणा - पृ० २२, वा० ६, समान शक्तिवाले कर्म परमाणुओं का समुदाय । रौद्रध्यान - पृ० २२, वा० ६, हिंसा करने, झूठ बोलने, चोरी करने व परिग्रहका संचय करने के तीव्र विचार | आर्तध्यान - ० २२, वा० ६, इष्टका वियोग होने पर दुख के साथ निरन्तर उसके मिलाने का विचार करना, अनिष्टका संयोग होने पर दुख के साथ निरन्तर उसे दूर करने का विचार करना, शारीरिक व मानसिक पीड़ा होने पर उसे दूर करने के लिये खिन्न खेद होना और भोगों को जुटाने के लिये निरन्तर चिन्तित रहना । अवधिज्ञान - ० २५, वा० १४, मर्यादित रूप से परोक्ष पदार्थ को सामने रखी हुई वस्तु के समान जानना । मन:पर्ययज्ञान - पृ० २५, वा० १४, दूसरे के मानस को प्रत्यक्ष रूप से जानना । केवलज्ञान - पृ० २५, वा० १४, जीवन्मुक्त दशा में प्राप्त होने वाला ज्ञान | --- आत्मबल - पृ० २५, वा० १५, अन्य पदार्थ का सहारा लिये बिना जो वीर्य स्वभाव से आत्मा में उत्पन्न होता है वह । इसी का दूसरा नाम अनन्त बल भी है । मोक्षमार्ग परोपह विजयो - पृ० २७, वा० २, स्वेच्छा से भूख, प्यास आदि जन्य बाधा सहते हुए भी बाधा अनुभव नहीं करने वाला ! Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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