Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 360
________________ गागर में सागर ॥ जबतक मन में बसत है पर पदार्थ की चाह । तबलग दुख संसार में चाहे होवे शाह ॥३१॥ पर परणति पर जानकर आप आप जप जाप । आप आपको याद कर भव का मेटहु ताप ॥३२॥ पर पदार्थ निज मानकर करते निशिदिन पाप । दुर्गति से डरते नहीं जगत करहिं सन्ताप ॥३३॥ समय गया नहिं कुछ किया नहिं जाना निजसार । पर परणति में मगन हो सहते दुःख अपार ॥३४॥ पर में आपा मानकर दुखी होत संसार । ज्यों परछाही श्वान लख भोंकत बारम्बार ॥३॥ यह संसार महा प्रबल या में वैरी दोय । पर में आपा कल्पना आप रूप निज खोय ॥३६।। जो सुख चाहत हो सदा त्यागो पर अभिमान । आप वस्तु में रम रहो शिव मग सुख की खान ॥३७।। आज काल कर जग मुवा किया न आतम काज । पर पदार्थ को ग्रहण कर भई न नेकहु लाज ॥३॥ जिन को चाहत तू सदा वह नहिं तेरा होय । स्वार्थ सधे पर किसी की बात न पूछे कोय ॥३९॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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