Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 358
________________ २५९ गागर में सागर भेद ज्ञोन महिमा अगम वचन गम्य नहिं होय । दूध स्वाद आवे नहीं पीते मीठा तोय ॥१६॥ दृढ़ता और सदाचारदृढ़ता को धारण करहु तज दो खोटी चाल । विना नाम भगवान के काटो भव का जाल ॥१७॥ सुख को वु ओ जग में जो चाहो भला तजो आदतें चार । हिंसा चोरी झूठ पुन और पराई नार ॥१८॥ जो सुख चाहत हो जिया ! तज दो बातें चार । पर नारी पर चूगली परधन और लवार ॥१९॥ गरीबीदीन लखे सुख सबन को दीनहिं लखे न कोय । भली विचारे दीनता नर हु देवता होय ॥२०॥ आपत्तिविपति भली ही मानिये भले दुखी हो गात । धैर्य धर्म तिय मित्र ये चारउ परखे जात ॥२१॥ नम्रता ऊँचे पानी न टिके नीचे ही ठहराय । नीचे हो जी भर पियै ऊँचा प्यासा जाय ॥२२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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