Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 363
________________ वर्णी-वाणी रोकड के चक्कर फंसे नहिं गिनते अपराध । अखिल जीव का घात कर चाहत हैं निज साध ॥५७।। रोकड़ से भी प्रेमकर जो चाहत कल्याण । विष भक्षण से प्रेम कर जिये चहत अनजान ।।५८॥ रोकड़ की चिन्ता किये रोकड़ सम लघु होय । रोकड़ आते ही दुखी किस विधि रक्षा होय ।।५९।। आकर जाने से दुखी विक् यह रोकड़ होय । फिर भी जो ममता करे वह पग पग धिक् होय ॥६०।। रोकड़ की चिन्ता किये दुखी सकल संसार । पर पदार्थ निज मानकर नहिं पावत भव पार ॥६॥ रोकड़ आपद मूल है जानत सब संसार । इतने पर नहि त्यागते किस विधि उतरें पार ॥६२।। साधु कहे बेटा ! सुनो नहिं धन कीना पार । अंटी में पैसा धरें क्या उतरोगे पार ? ॥६३।। द्रव्य मोह अच्छा नहीं जानत सकल जहान । फिर भी पैसा के लिये करत कुकर्म अजान ॥६४॥ जिन रोकड़ चिन्ता तजी जाना प्रातम भाव । तिनकी मुद्रा देखकर क्रूर होत सम भाव ॥६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only E www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380