Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 364
________________ गागर में सागर व्यवहार नय से---- रोकड़ बिन नहिं होत है इस जग में निर्वाह । इसकी सत्ता के बिना होते लोग तबाह ॥६६॥ लाभ---- ज्ञानी तापस शूर कवि कोविद गुण आगार । कहिके लोभ विडम्बना कीन्ह न इह संसार ॥६७॥ सन्तोपो जीवनइक रोटी अपनी भली चाहे जैसी होय । ताजी वासी मुरमुरी रूखी सूखी कोय ॥६८।। एक वसन तन ढकन को नया पुराना कोय । एक उसारा रहन को जहां निर्भय रहु सोय ॥६९।। राजपाट के ठाठ से बड़कर समझे ताहि । शीलवान सन्तोष युत जो ज्ञानी जग मांहि ॥७०॥ कुसङ्गतिमरख की संगति किये होती गुण की हानि । ज्यों पावक सङ्गति किये घी की होती हानि ॥७॥ दुःख शील संसार जो जो दुख संसार में भोगे प्रातम राम ! तिनकी गणना के किये नहिं पावत विश्राम !!७२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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