Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 344
________________ २८७ भगवान् महावीर आत्मा में देखने जाने की शक्ति है परन्तु यह जीव उस शक्ति का यथार्थ उपयोग नहीं करता अर्थात् पुद्गल को अपना मानता है, अनात्मीय शरर को आत्मा मान कर उसकी रक्षा के लिये जो जो यत्न किया करता है वे यत्न प्रायः संसारी जीवों के अनुभव गम्य होते हैं । इसलिये परमार्थ से देखा जाय तो कोई किसी का नहीं। इससे ममता त्यागो। ममता का त्याग तभी होगा जब इसे पहले अनात्मीय जानोगे। जब इसे पर समझोगे तब स्वयमेव इससे ममता छूट जायगी। इससे ममता छोड़ना ही संसार दुःख के नाश का मूल कारण है। परन्तु इसे अनात्मीय समझना ही कठिन है। कहने में तो इतना सरल है कि "आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, आत्मा ज्ञाता दृष्टा है, शरीर रूप रस गन्ध स्पर्श वाला है। जब आत्मा का शरीर से सम्बन्ध छूट जाता है तब शरीर में कोई चेष्टा नहीं होती" परन्तु भोतर बोध हो जाना कठिन है। अतः सर्व प्रथम अना. त्मीय पदार्थों से अपने को भिन्न जानने के लिये तत्व ज्ञान का अभ्यास करना चाहिए। आत्म ज्ञान हुए बिना मोक्ष का पथिक होना कठिन है, कठिन क्या असम्भव भी है। अतः अपने स्वरूप को पहिचानो। तथा अपने स्वरूप को जानकर उसमें स्थिर होओ । यही संसार से पार होने का मार्ग है। "सबसे उत्तम कार्य दया है। जो मानव अपनी दया नहीं करता वह पर को भी दया नहीं कर सकता । परमार्थ दृष्टि से जो मनुष्य अपनी दया करता है वही पर की दया कर सकता है। __ "इसी तरह तुम्हारी जो यह कल्पना है कि हमने उसको सुखो कर दिया, दुखो कर दिया, इनको बँधाता हूँ, इनको छुड़ाता हूँ, वह सब मिथ्या है। क्योंकि यह भाव का व्यापार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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