Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 325
________________ स्थितिकरण अङ्ग आजकल के समय में स्थितिकरण अङ्ग की विशेषता चली गई । वास्तव में स्थितिकरण तो उसे कहते हैं: उम्मग्गं गच्छत्तं सगं पि मग्गं ठवेदि जो चेदा । सो ठिदिकरणा जुत्तो सम्माइट्ठी मुणेयव्वो ।। उन्मार्ग में जाते हुए अपने आत्मा को सन्मार्ग में जो स्थापन करता है उस स्थित करनेवाले जीव को सम्यग्दृष्टि कहते हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्यों के पूर्व विपाक से नाना आपत्तियाँ आती हैं उस समय अच्छे अच्छे मनुष्य धैर्य का परित्याग कर देते हैं तथा उनकी श्रद्धा में भी अन्तर पड़ने लगता है। यह असंभव नहीं, अनादि काल से आत्मा का संसर्ग पर पदार्थों के साथ एकमेक हो रहा है अन्यथा ऐसा न होता तब आहारादि विषयक इच्छा ही नहीं होती। देखो सम्यग्दर्शन होने के बाद ज्ञान तो सम्यक् हो गया, आत्मा से विपरीताभिनिवेश निकल गया, जिस जिस रूप में पदार्थों की स्थिति है उन्हें उसी उसी रूप में मानता है। आत्मा को आत्मत्व धर्म द्वारा और शरीर को शरीरत्व धर्म द्वारा ही बोध का विषय करता है। "शरीराद्जीबो भिन्नः” शरीर से आत्मा भिन्न है और आत्मा से शरीर भिन्न है ऐसा दृढ़ निश्चय है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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