Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 332
________________ २७५ स्थितिकरण अङ्ग को तरह बहती थी । मन्दिर में जब साफ करने को जाता था, सर्वप्रथम श्री जिनेन्ददेव के दर्शन करता था और यह प्रार्थना करता था-"हे भगवन् ! मुझे ऐसी सुमति दो कि मेरे स्वप्न में भी पर अपकार के परिणाम न हों तथा निरन्तर दया के भाव रहें। और कुछ नहीं चाहता।” यही उसका प्रति दिन का कार्य था। ___ एक दिन की बात है कि चार आदमी (जिनमें ३ ब्राह्मण ओर १ नाई था) मन्दिर में आये। धर्मशाला में ठहर गये, भगतजी से बोले-"भगतजी ! हम बहुत भूखे हैं तुम हमको रोटी दो।" वह बोला-"हम जाति के कोरी हैं, हमारी रोटी आप कैसे खाओगे ?" वह बोले-"आपत्ति काले मर्यादा नास्ति' आपत्तिकाल में लोक मर्यादा नहीं देखी जाती। हमारे तो प्राण जा रहे हैं तुम धर्म-कर्म की बात कर रहे हो !” यह कहना सर्वथा अनुचित है, यदि हमारे प्राण बच गये तब हम फिर प्रायश्चित्तादि कर धर्म-कर्म की चर्चा करने लगेंगे। अब विशेष बात करने की आवश्यकता नहीं । इस वर्ष दुर्भिक्ष पड़ गया, हमारे यहाँ कुछ अन्न नहीं हुआ। इससे हम लोगों ने कुटुम्ब त्याग कर परदेश जाने का निश्चय कर लिया । चार दिन के भूखे हैं या तो रोटी दो या मना करो कि जाओ यहाँ रोटी नहीं तो अन्यत्र जाकर भीख माँग कर अपने प्राण बचायेंगे।" भगत ने कहा-"महाराज ! यह आधा सेर गुड़ है आप लोग पानी पीवें । मैं बाजार जाकर आटा लाता हूँ।" वे लोग कुएँ पर पानी पीने लगे। भगत ने अपनी स्त्री से कहा-"आगी तैयार करो मैं बाजार से आटा लाता हूँ।" उसने आगी तैयार की, भगत तीन सेर आटा और बैगन लाये, उन लोगों ने आनन्द से रोटी खाई और भगतजी से कहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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