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वर्ण-वाणी
आप लोग क्षमा धारण करें चाहे उपवास एकासन आदि व्रत न करें क्योंकि क्षमा ही धर्म है और धर्म ही चारित्र है। ___६. यह जीव अनादिकाल से पर पदार्थ को अपना समझ कर व्यर्थ ही सुखी दुखी होता है जिसे यह सुख समझता है वह सुख नहीं है सच्चा सुख क्षमता में है। वह ऊचाई नहीं जहाँ से फिर पतन हो, वह सुख नहीं जहाँ फिर दुख की प्राप्ति हो ।
१०. सच्चा सुख क्षमा में है शेष जो है वह वैषयिक और पराधीन हैं, वाधा सहित हैं, उतने पर भी नष्ट हो जाने वाले हैं और अगामी दुःख के कारण हैं । कौन समझदार इसे सुख कहेगा ?
११. इस शरीर से आप स्नेह करते हैं पर इस शरीर में है क्या ? आप ही बताओ माता पिता के रज बीय से इसकी उत्पत्ति हुई, हड्डी मांस, रुधिर आदि का स्थान है उसीकी फुलवारी है । यह मनुष्य पर्याय साँटे के समान है। सांटे की जड़ तो सड़ी होने से फेक दी जाती है, बाँड़ भी वेकाम होता है, मध्य में कोड़ा लग जाने से वेस्वाद हो जाता है। इसी प्रकार इस मनुष्य को वृद्ध अवस्था शरीर के शिथिल हो जाने से गन्ने की सड़ी जड़ों के समान बेकार है। बाल अवस्था अज्ञानी की अवस्था है, अतः गन्ने की वांड के सदृश्य वह भी बेकार है मध्य दशा (युवावस्था ) अनेक रोग और संकटों से भरी हुई है उसमें कितने भोग भोगे जा सकेंगे ? पर यह जीव अज्ञान वश अपनी हीरा सी मनुष्य पर्याय व्यर्थ ही खो देता है । - १२. जिस प्रकार बात की व्याधि से मनुष्य के अंग अंग दुखने लगते हैं उसी प्रकार कषाय से, विषयेच्छा से, इसकी
आत्मा का प्रत्येक प्रदेश दुखी हो रहा है। इसलिए मनुष्य को चाहिये कि क्षमाधर्म का अमृत पोकर अमर होने की चेष्टा करे ।
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