Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 318
________________ २६१ धर्म प्रश्न होता है कि वह बनानेवाला कौन है ? तब ऐसी कल्पना करता है कि कोई ऐसा अलौकिक सर्वशक्तिमान है जिसे हम आँखों से नहीं देख सकते । भारतवासियों ने उसका नाम ईश्वर रखा, अरबवालों ने अल्ला रखा, विलायतवालों ने गाड रखा और ईरानवालों ने खुदा नाम रख लिया। यद्यपि ऐसी कल्पना तो कर ली पर इसे माने कौन ? तब कई पढ़े-लिखे लोगों ने पुस्तकों की रचना की। जो भारतवासी थे उन्होंने संस्कृत में रचना की और उसका नाम वेद रखा और कहा कि इसका रचयिता ईश्वर है जिन्हें यह नहीं रुचा उन्होंने वेद को अपौरुषेय बतलाया और कहा कि इस ब्रह्माण्ड को कौन बना सकता है। उसकी अनादि से ऐसी ही रचना चली आई है। इस जगत् का भी कर्ता कोई नहीं । वेद अनादि निधन हैं ! इनमें जो यागादि कर्म बतलाये हैं वे ही प्राणियों को स्वर्गादि के दाता हैं ! वेद में जो कुछ लिखा है उसी के अनुकूल सबको चलना चाहिये ! इसी में सबका कल्याण है ! वेद विहित कर्म का आचरण करना ही धर्म है ! ____ इस प्रकार यह जीव राग, द्वेष और मोहवश नाना प्रकार की कल्पनाओं में उलझा हुआ है और उनकी श्रद्धा कर तदनुकूल प्रवृत्ति करने में धर्म मानता है। पर वास्तव में धर्म क्या है ? यह प्रश्न विचारणीय है तत्त्वतः देखा जाय तो जो धर्मी पदार्थ के साथ अभेद सम्बन्ध से तीन काल रहे उसी का नाम धर्म है। वास्तव में तो वह अनिर्वचनीय है परन्तु ऐसा भी नहीं कि पदार्थ सर्वथा अनिर्वचनीय है। यदि ऐसा मान लिया जावे तब संसार का आज जो व्यवहार है वह सभी लोप हो जावे, परन्तु ऐसा होता नहीं। वाच्य वाचक शब्दों द्वारा वस्तु का व्यवहार लोक में होता है। जैसे घट शब्द कहने से लोक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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