Book Title: Varni Vani
Author(s): Narendra Jain
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 286
________________ २२९ संसार है ! माँ गृह-कार्य में व्यस्त होती है, बालक के कपड़े मलमूत्र से गन्दे हो जाते हैं। बालक सूखे और साफ कपड़े चाहता है, परन्तु वे समय पर नहीं मिलते । कैसी परतन्त्रता है ! स्त्री पर्याय के अनुसार यदि कन्या हुई तो कहना ही क्या है ? उसके दुःखों को पूछनेवाला ही कौन है ? जन्म समय "कन्या” सुनते ही माँ-बाप और कुटुम्बीजन अपने ऊपर सजीव ऋण समझने लगते हैं। युवावस्था होने पर जिसके हाथ माता पिता सौंप दें गाय की तरह चला जाना पड़ता है। क या सुन्दर हो वर कुरूप हो, कन्या सुशील और शिक्षित हो कर दुःशील और अशिक्षित हो, कन्या धन सम्पन्न और वर गरीब हो कोई भी इस विषमता पर पूर्ण ध्यान नहीं देता ! लड़की को घर का कूड़ा कचड़ा समझ कर जितना शीघ्र हो सके घर से बाहर करने की सोचता है ! कैसा अन्याय है ! यदि पुरुष हुआ तो भी कुशलता नहीं। विवाह क्या होता हैं मनुष्य से चतुष्पद (चौपाया) हो जाता है। एक दूसरो ही कुल देवी का शासन शिरोधार्य करना पड़ता है ! चूँघट माता के आज्ञा पालन में मदारी के बन्दर की तरह नाचना पड़ता है ! विषयाशा की ज्वाला में रात दिन जलते जलते बहुत दिन बाद भी जब कभी सन्तति न हुई तब सासु बहू को कुलक्षणा और और कुल कलङ्किनी कहती है, पति स्त्री को फूटी आँख से भी नहीं देखना चाहता ! इस तरह बेचारी बहू को माँगे भी मौत नहीं मिलती। यदि सन्तति हुई और बालिका हुई तब भी कुशल नहीं, कहते हैं पूर्व भव का सजा व पाप शिर पर आ पड़ा ! यदि बालक हुआ और दुराचारी निकल गया तब कुल कलङ्की ठहरा ! पिता को षट्पद् (छह पैरवाला-भौरा) संज्ञा हो गई, कुटुम्ब पालन के लिए भौरे की तरह इधर-उधर दौड़ता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380