Book Title: Varn Jati aur Dharm Author(s): Fulchandra Jain Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 11
________________ में भी कुछ ऐसी सामग्री उपलब्ध होती है जिसके द्वारा जातिवाद पर तीव्र प्रहार किया गया है, उसे भी मैं परिशिष्ट के रूप में इसमें संचित कर देना चाहता था। दो-तीन माह परिश्रम करके मैंने बहुत कुछ सामग्री का संकलन भी कर लिया था; किन्तु इस पुस्तक को मुद्रित हुए बहुत समय हो गया था, और अधिक समय तक यह प्रकाशित होने से रुकी रहे यह मैं चाहता नहीं था, इसलिए इस योजना को तत्काल छोड़ दिया गया। जिस समय यह पुस्तक लिखी गयी थी, यदि उसी समय प्रकाशित हो जाती तो कई दृष्टियों से लाभप्रद होता। पुस्तक में जातिवाद की दृष्टि से महापुराण के जातिवादी अंश की तथा इसी प्रकार के अन्य साहित्य की सौम्य पर्यालोचना आयी है। इस पर से कोई महानुभाव यह भाव बनाने की कृपा न करें कि मैं महापुराण या उसके रचयिता आचार्य जिनसेन के प्रति या इसी प्रकार अन्य आचार्यों या विद्वानों के प्रति आदर या श्रद्धा नहीं रखता। वस्तुतः ये सब आचार्य और विद्वान् दि. जैन परम्परा के आधार-स्तम्भ हैं, इसमें सन्देह नहीं। मेरा विश्वास है कि इन आचार्यों या विद्वानों ने जातिवाद को जिस किसी रूप में प्रश्रय दिया है उसमें मूल कारण उस समय की परिस्थिति ही रही है। यह दूसरी बात है कि आज वह परिस्थिति हमारे सामने नहीं है। अतएव इस पुस्तक में जो जातिवादी अंश की सप्रमाण पर्यालोचना की गयी है, वह जैनधर्म के आचार की तात्त्विक भूमिका के आधार पर ही की गयी है। आशा है, इस पर्यालोचना से समाज और दूसरे लोगों के ध्यान में यह बात स्पष्ट रूप से आ जायेगी कि जातिवादी व्यवस्था जैनधर्म का अंग नहीं है। यह परिस्थितिवश स्वीकार की गयी व्यवस्था है। अब हमारे विचार में उनमें परिस्थिति बदल गयी है, अतः दि. जैन साहित्य में प्ररूपित इस जातिवादी व्यवस्था के त्याग में ही दि. जैन परम्परा का हित है। हमें विश्वास है कि सभी विद्वान् और समाज इसी दृष्टिकोण से इस पुस्तक का अवलोकन करेंगे। - मैं उन सबका आभारी हूँ जिन्होंने इसके निर्माण के लिए मुझे प्रेरणा दी या इसके निर्माण में सहयोग किया। विशेष रूप से भारतीयPage Navigation
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