Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ तिर्यञ्च और दूसरा मनुष्य; फिर भी शूद्रों के लिए तो धर्म धारण करने का अधिकार न रखा जाये और तिर्यञ्चों को रहे! स्पष्ट है कि लौकिक परिस्थितियों के प्रभाववश ही शूद्रों को धर्म से. वञ्चित किया गया है। इसीलिए स्वामी समन्तभद्र 'रत्नकरण्ड' में सम्यग्दर्शन से युक्त चाण्डाल को देवपद से विभूषित करने में थोड़ी भी हिचकिचाहट का अनुभव नहीं करते। और यही कारण है कि पण्डितप्रवर आशाधर जी ने कृषि और वाणिज्य आदि से आजीविका करनेवाले गृहस्थ को जिस प्रकार नित्यमह, आष्टाह्निकमह आदि का पूजन करने का अधिकारी माना है, उसी प्रकार सेवा और शिल्प (शूद्रकम) से आजीविका करनेवाले को भी उन सबका अधिकारी माना है। - आचार्य जिनसेन ने महापुराण में तीन वर्ण के मनुष्यों के लिए जो षट्कर्म बतलाये थे, उनमें से वार्ता ( आजीविका ) को हटाकर और उसके स्थान में गुरूपास्ति को रखकर उत्तरकालीन अनेक आचार्यों ने उन्हें श्रावकमात्र का दैनिक कर्तव्य घोषित किया। इसका भी यही कारण प्रतीत होता है कि किसी भी आचार्य को यह इष्ट नहीं था कि कोई भी मनुष्य शूद्र होने के कारण अपने दैनिक धार्मिक कर्तव्य से भी वञ्चित किया जाये। धर्म कोई देने-लेने की वस्तु तो है नहीं, वह तो जीवन का सहज परिणाम है जो काल-लब्धि आने पर योग्यतानुसार सहज उद्भूत होता है अर्थात् जीवन का अंग बन जाता है। इस प्रकार जाति-प्रथा के विरोध में जब स्पष्ट रूप से आगम उपलब्ध है तो जाति-प्रथा और उसके आधार से बने हुए विधि-विधानों का सहारा लिये रहना किसी भी व्यक्ति को किसी भी अवस्था में उचित नहीं माना जा सकता। यही कारण है कि बहुत से समाजहितैषी बन्धु निर्भय होकर इस जाति-प्रथा का न केवल विरोध करते हैं, जीवन में प्रश्रय भी नहीं देते, इसके आधार पर चलते भी नहीं। इस विषय पर शास्त्रीय दृष्टि से अभी तक सांगोपांग मीमांसा नहीं हो पायी थी। यह एक कमी थी, जो सबको खटकती थी। 1955-56 ई. में मान्यवर स्व. साहू शान्तिप्रसाद जी का इस ओर विशेष ध्यान

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