________________ का निषेध करते हुए कहते हैं, “वास्तव में यह उच्च या नीचपने का विकल्प ही सुख या दुःख का करनेवाला है। कोई उच्च और नीच जाति है, और वह सुख और दुःख देती है, यह कदाचित् भी नहीं है। अपने उच्चपने का निदान करनेवाला कुबुद्धि पुरुष धर्म का नाश करता है और सुख को नहीं प्राप्त होता। जैसे बालू को पेलनेवाला लोकनिन्द्य पुरुष कष्ट भोगकर भी कुछ भी फल का भागी नहीं होता, ऐसे ही प्रकृत में जानना चाहिए।" इस प्रकार हम देखते हैं कि किसी भी आचार्य ने पारलौकिक (मोक्षमार्गरूप) धर्म में लौकिक धर्म को स्वीकार नहीं किया है और इसीलिए सोमदेवसूरि ने स्पष्ट शब्दों में धर्म के दो भेद करके पारलौकिक धर्म को जिन-आगम के आश्रित और लौकिक धर्म को वेदादि ग्रन्थों के आश्रित बतलाया है। जैन परम्परा में यह जाति-प्रथा और. तदाश्रित धर्म की स्थिति है। ठीक इसी प्रकार गोत्र और कुल के विषयों में भी जानना चाहिए। आचार्य वीरसेन ने गोत्र का विचार करते हुए इक्ष्वाकु आदि कुलों को स्वयं काल्पनिक बतलाया है। कर्मशास्त्र में जिसे गोत्र कहा गया है वह लौकिक गोत्र से तो भिन्न है ही, क्योंकि गोत्र जीवविपाकी कर्म है। उसके उदय से जीव की नोआगमभाव पर्याय होती है अर्थात् जैसे जीव की मनुष्य पर्याय होती है वैसे ही वह पर्याय हो जाती है। और वह विग्रहगति में शरीर ग्रहण के पूर्व ही उत्पन्न हो जाती है, इसलिए उसका लौकिक गोत्र के साथ सम्बन्ध किसी भी अवस्था में स्थापित नहीं किया जा सकता। यह तो आगम ही है कि नोआगमभावरूप नीचगोत्र के साथ कोई मनुष्य मुनि नहीं होता। परन्तु जब कोई ऐसा व्यक्ति नोआगमभावरूप वास्तविक मुनिपद. अंगीकार करता है तो उसके होने के साथ में ही उसका नींचगोत्र बदलकर नोआगमभावरूप उच्चगोत्र हो जाता है, यह भी आगम से स्पष्ट है। ... आगम में नीच गोत्री श्रावक के क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति तो