Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 6
________________ ... जिन जैन आचार्यों ने जाति, कुल, गोत्र आदि की प्रथा को परिस्थितिवश धर्म का अंग बनाने का उपक्रम किया, उन्होंने भी इसे वीतराग भगवान् की वाणी या आगम कभी नहीं कहा। सोमदेवसूरि ने अपने यशस्तिलक में गृहस्थों के धर्म के लौकिक और पारलौकिक दो भेद किये हैं तथा लौकिक धर्म में वेदों और मनुस्मृति आदि ग्रन्थों को ही प्रमाण बताया है, जैन आगम को नहीं। इसी प्रकार इन्होंने अपने नीतिवाक्यामृत में वेद आदि को त्रयी कहकर वर्णों और आश्रमों के धर्म और अधर्म की व्यवस्था त्रयी के अनुसार बतायी है-त्रयीतः खलु वर्णाश्रमाणां धर्माधर्मव्यवस्था। .. यह बात केवले सोमदेवसूरि ने ही नहीं कही, मूलाचार के टीकाकार आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचार की (अध्याय 5 श्लोक 59) टीका में लोक का अर्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र किया है और उनके आचार को लौकिक आचार बताया है। स्पष्ट है कि लौकिक आचार से पारलौकिक आचार वे भी भिन्न मानते रहे। ___ महापुराण के कर्ता आचार्य जिनसेन ने ब्राह्मणवर्ण के साथ जाति-प्रथा की उत्पत्ति भरत चक्रवर्ती के द्वारा बतायी है, केवलज्ञानसम्पन्न परम वीतरागी भगवान् आदिनाथ के मुख से नहीं। इससे भी यही ज्ञात होता है कि वे भी इसे पारलौकिक धर्म से जुदा ही मानते थे। जैन धर्म में जाति-प्रथा को स्थान क्यों नहीं है, इस प्रश्न का सहज तर्क से समाधान करते हुए आचार्य गुणभद्र ने उत्तरपुराण में कहा है, “मनुष्यों में गाय और अश्व के समान कुछ भी आकृतिकृत भेद नहीं है। आकृति-भेद होता तो जातिकृत भेद मानना ठीक होता। परन्तु आकृतिभेद नहीं है; इसलिए पृथक्-पृथक् जाति की कल्पना करना व्यर्थ है।" ..... आचार्य रविषेण ने अपने पद्मपुराण में जातिवाद का निषेध करते हुए यहाँ तक लिखा है कि कोई जाति गर्हित नहीं है, वास्तव में गुण कल्याण के कारण हैं, क्योंकि भगवान् जिनेन्द्र ने व्रतों में स्थित चाण्डाल को भी ब्राह्मण माना है। . अमितगति श्रावकाचार के कर्ता इससे भी जोरदार शब्दों में जातिवाद

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