Book Title: Varn Jati aur Dharm
Author(s): Fulchandra Jain Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ गया। फलस्वरूप श्री स्याद्वाद महाविद्यालय की स्वर्ण-जयन्ती के समय मधुवन में उन्होंने मुझसे इस विषय की चर्चा तो की ही, साथ ही, इस.. विषय पर एक स्वतन्त्र पुस्तक लिख देने का आग्रह भी किया था। इसके बाद उनका आग्रहपूर्ण एक पत्र भी मिला था। बन्धुवर बाबू लक्ष्मीचन्द्र जी तथा स्वर्गीय पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य आदि अन्य महानुभावों का आग्रह तो था ही। 'वर्ण, जाति और धर्म' पुस्तक वस्तुतः इन सब महानुभावों के इसी अनुरोध का फल है। ____ मान्यवर साहू जी और उनकी धर्मपत्नी सौ. रमारानी जी विचारशील दम्पती रहे हैं। उनकी मान्यता थी कि जैनधर्म ऊँच-नीच के भेद को स्वीकार नहीं करता और इसीलिए उनका यह स्पष्ट मत था कि जो धर्म मनुष्य-मनुष्य में भेद करता है, वह धर्म ही नहीं हो सकता। साहू जी ने इस पीड़ा को उस समय बड़े ही मार्मिक और स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया था, जब उन्हें पूरे जैन समाज की ओर से मधुवन में श्रावकशिरोमणि के सम्मानपूर्ण पद से अलंकृत किया गया था। उनके वे मर्मस्पर्शी शब्द आज भी मेरे स्मृतिपटल पर अंकित हैं। उन्होंने कहा था, “समाज एक ओर तो मेरा सत्कार करना चाहती है और दूसरी ओर मेरी उन उचित बातों की ओर जरा भी ध्यान नहीं देना चाहती, जिसके बिना आज हमारा धर्म (जैनधर्म) निष्प्राण बना हुआ है। फिर भला उपस्थित समाज ही बतलाये कि मैं ऐसे सम्मान को लेकर क्या करूँगा। मुझे सम्मान की चाह नहीं है। मैं तो उस धर्म की चाह करता हूँ जो भेदभाव के बिना मानवमात्र को उन्नति के शिखर तक पहुँचाता है।" ___ वस्तुतः यह पुस्तक इसके प्रथम संस्करण से, 1963 से, लगभग पाँच-छह वर्ष पूर्व ही लिखी गयी थी। मुद्रण का कार्य भी तभी सम्पन्न हो गया था। किन्तु इसके बाद कुछ ऐसी परिस्थिति निर्मित हुई जिसके कारण यह प्रकाश में आने से रुकी रही। मैंने कुछ परिशिष्ट देने की भी योजना की थी, क्योंकि मैं चाहता था कि बौद्ध और श्वेताम्बर परम्परा के साहित्य में जो जातिविरोधी विपुल सामग्री उपलब्ध होती है वह परिशिष्ट के रूप में इस पुस्तक में जोड़ दी जाए। साथ ही वैदिक परम्परा

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