Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 10
________________ [9] 0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000 गया है कि जो तप समझ पूर्वक हो, उसका स्वरूप समझ कर मन और इन्द्रियों को अनुशासित कर एकान्त कर्मों की निर्जरा के लिए किया जाय वही तप ही सम्यक् तप की कोटि में आता है। नाम, कामना, प्रसिद्धि किसी भौतिक लालसा आदि के निदान रूप किया गया तप मिथ्या तप है। ऐसा तप मोक्ष मार्ग में सहायक नहीं होता है। इस अध्ययन में सम्यक्तप का स्वरूप तथा तप के बाह्य और आभ्यन्तर भेदों का सुन्दर निरूपण किया गया है। इकतीसवाँ अध्ययन - चरण विधि - संयमी साधक के लिए संयम यानी चारित्र का पालन सब कुछ होता है। इसमें जरा-सी स्खलना उसके आध्यात्मिक जीवन को नष्ट-भ्रष्ट करने वाली सिद्ध हो सकती है। चारित्र के अनेक अंग हैं - पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, दसविध श्रमण धर्म, कषाय विजय, परीषह विजय आदि। इनका भगवान् की आज्ञानुसार यथाविध पालन करना ही संयम है। इस अध्ययन में तेतीस बोलों के माध्यम से हेय, ज्ञेय और उपादेय को समझ कर चारित्र पोषक गुणों में प्रवृत्ति करने की विधि बतलाई गई है। बत्तीसवाँ अध्ययन - प्रमाद स्थान - सामान्य रूप से प्रमाद का अर्थ असावधानी, आत्मजागृति का अभाव लिया जाता है। किन्तु इस अध्ययन में साधक को संयम पालन में सहायकभूत शरीर, इन्द्रिय, मन, वस्त्र उपकरण आदि का सम्यक् प्रकार से उपयोग नहीं करने को प्रमाद स्थान में लिया गया है। प्राप्त साधनों का उपयोग करने में किन-किन बातों की सावधानी रखनी चाहिए। इसका निरूपण इस अध्ययन में किया गया है। जो साधक अज्ञान, मोह, राग-द्वेष आदि के वश होकर प्राप्त साधनों का दुरुपयोग करता है यानी पाप कर्म के बन्ध की परवाह नहीं करता, उन्हें प्रमाद स्थान में कहा गया है। साधक को प्रमाद स्थानों से सतत बचने का इस अध्ययन में निर्देश दिया है। तेतीसवाँ अध्ययन - कर्म प्रकृति - अन्य दर्शन ईश्वर को जगत् का कर्ता मानते हैं। जबकि जैन दर्शन जीव को स्वयं कर्म का कर्ता और भोक्ता मानता है। यह जैन दर्शन की अन्य दर्शनों से मौलिक भिन्नता है। जीव स्वयं अनन्त शक्ति का पुंज है, वह यदि सम्यक् पुरुषार्थ करे तो समस्त कर्मों को क्षय करके शुद्धतम (मोक्ष) अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इस अध्ययन में कर्मों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का स्वरूप बतला कर, उनके बन्ध के कारण तथा फल का गहराई से विश्लेषण किया गया है। चौतीसवाँ अध्ययन - लेश्या - इस अध्ययन में मन, वचन, काया के शुभाशुभ परिणामों या प्रवृत्तियों से अनुरंजित होने वाले विचारों को लेश्या कहा गया है। जीव के मन, वचन, काया की प्रवृत्ति के अनुसार आत्म-परिणति बनती है और जैसी आत्मा की शुभाशुभ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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