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सम्बन्धी बातों पर विचार किया गया है। छठे उद्देशक में साधुओं के लिए अलीक (असत्य) आदि छ: प्रकार के वचनों को वर्जनीय बताया गया है। साथ ही इसमें किस स्थिति में साधु साध्वी परस्पर एक दूसरे के सहयोगी बन सकते हैं इसका वर्णन किया गया है। अन्त में छः प्रकार की साधु-मर्यादा का उल्लेख है।
इस प्रकार इस ग्रन्थ में साधु-साध्वी के जीवन व्यवहार से सम्बन्धित अनेक नियमों का विधान किया गया है। ३. व्यवहारसूत्र
'व्यवहार' का अर्थ है आलोचना, शुद्धि या प्रायश्चित्त। इसका प्रतिपाद्य आलोचना या प्रायश्चित्त होने से इस सूत्र का नाम व्यवहार रखा गया है। इसके रचयिता आचार्य भद्रबाहुस्वामी (प्रथम) माने जाते हैं। इसमें दस उद्देशक हैं।
प्रथम उद्देशक में आलोचना करने वाला मनि कैसा होना चाहिए और आलोचना किसके समक्ष की जा सकती है, इसका वर्णन है। द्वितीय उद्देशक में समान समाचारी वाले साधुओं की प्रायश्चित्त विधि का वर्णन किया गया है। तीसरे उद्देशक में विहार सम्बन्धी विवेक का उल्लेख है। साथ ही आचार्य आदि सात पद कब और कैसे प्रदान किये जाते हैं, इसका व्यवस्थित निरूपण है। चतुर्थ उद्देशक में आचार्य आदि के साथ विहार एवं वर्षावास में कितने साधु रहना चाहिये इसका वर्णन है। पांचवें उद्देशक में प्रवर्तिनी आदि साध्वियों की विहार चर्या आदि का वर्णन है। छट्टे उद्देशक में सम्बन्धियों के यहां जाने की विधि, आचार्य आदि की महत्ता का प्रतिपादन है। सातवें उद्देशक में मुख्य रूप से दीक्षा के योग्य पात्र, काल एवं विधि का वर्णन है । आठवें उद्देशक में शय्या आदि का ग्रहण करने की विधि का वर्णन है। नौवें उद्देशक में शय्यातर के अधिकार तथा अंशाधिकार का कोई भी पदार्थ साधु के लिए अकल्पनीय है; इस वर्णन के साथ साधु की प्रतिमाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। दसवें उद्देशक में यवमध्य चन्द्र एवं वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमाओं की विधि, व्यवहार के पांच प्रकार, बालक की दीक्षा-विधि आचारांग आदि सूत्रों के अध्ययन का काल एवं दस प्रकार के वैयावृत्य का वर्णन किया गया है।
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