Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Vinitpragnashreeji
Publisher: Chandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust

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Page 650
________________ ५८५ जो उत्तराध्ययनसूत्र की अनेकान्तवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है। क्योंकि जब यह कहा जाता है कि अपना सत्य खोजो तो इसका तात्पर्य यह है 'आपका सत्य आपके दृष्टिकोण (point of view) पर आधारित होगा। प्रत्येक का सत्य अपना व्यक्तिगत है; अतः उसको दूसरों पर थोपने का अधिकार नहीं है। उसका सत्य उसकी अपनी परिस्थिति या जीवनदृष्टि पर निर्भर होता है। व्यक्ति परिधि पर जिस स्थान पर खड़ा है, उसका मार्ग वहीं से निर्धारित होगा। एक व्यक्ति को परिधि के उसी बिन्दु से, उसी मार्ग से केन्द्र की और प्रयाण करना होगा जहां वह स्थित है । वह दूसरे के परिधि स्थान से केन्द्र की ओर अग्रसर होने पर लक्ष्य को नहीं पा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र का तेईसवां अध्ययन वैचारिक तथा धार्मिक असहिष्णुता को दूर करने की प्रेरणा देता है। उसमें अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के द्वारा आचार और विचार सम्बन्धी मत-वैभिन्न्य के समन्वय का समुचित उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। आज साम्प्रदायिक संघर्षों के निराकरण के लिये उसका सन्देश अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि उसमें तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं तीर्थंकर महावीर इन दोनों परम्पराओं के बीच रही विभिन्नताओं के बीच समन्वय की उचित दिशा प्रदान की गई है। यहां इसमें बताया गया है कि भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के तत्कालीन प्रमुख आचार्य श्रमणकेशी और भगवान महावीर के प्रधान गणधर (शिष्य प्रमुख) गौतमस्वामी का जब एक ही समय श्रावस्ती नगरी में पदार्पण होता है तो वे दोनों परम्पराओं के पारस्परिक मतभेदों को दूर करने के लिए परस्पर सौहार्दपूर्ण वातावरण में मिलते हैं। एक ओर केशीश्रमण को ज्येष्ठ कुल का मानकर गौतमस्वामी स्वयं केशीश्रमण के पास जाते हैं तो दूसरी ओर उन्हें अपने यहां आते हुए देखकर केशीश्रमण उन्हें पूर्ण सम्मान प्रदान करते हैं। पुनः दोनों आचार्य परस्पर मिलकर अपने आचारगत बाह्य मतभेदों का किस उदारदृष्टि से समन्वय करते हैं, यह उत्तराध्ययनसूत्र का यह प्रतिपादन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इन दोनों परम्पराओं के मतभेद सिद्धान्तगत नहीं होकर मूलतः आचारगत ही थे, क्योंकि. मूल सिद्धान्त तो सभी तीर्थंकर के समान होते हैं। आचारांग में अहिंसा को शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म कहा गया है। यह सभी तीर्थंकरों द्वारा समान रूप से प्रवेदित धर्म है।" इस प्रकार मूल सिद्धान्त सभी तीर्थंकरों के समान होते हुए भी देश, काल, व्यक्ति एवं परिस्थितिगत सापेक्षता के । आचारांग २ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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