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उत्तराध्ययनसूत्र में मानसिक शुभ संकल्प के द्वारा शारीरिक अस्वस्थता का निवारण किस प्रकार किया जा सकता है इसे सौदाहरण प्रस्तुत किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित अनाथीमुनि का दृष्टान्त श्रद्धा एवं संकल्प के द्वारा चिकित्सा का स्पष्ट निर्देशन करता है। अनाथीमुनि भयंकर वेदना से पीड़ित थे। सभी प्रकार के औषधोपचार भी जब उनकी वेदना का निवारण नहीं कर सके, तब उन्होंने स्वयं अपने लिये शुभसंकल्प और शुभ अध्यवसाय रूप चिकित्सा की। उस चिकित्सा का अचूक प्रभाव हुआ और वे अपने आत्मविश्वास एवं दृढ़ संकल्प के द्वारा रोग से मुक्त हो गये। उनका संकल्प था कि यदि उस वेदना से मुक्त हो जायेंगे तो संयम स्वीकार कर लेंगे।
इसके अतिरिक्त भी उत्तराध्ययनसूत्र में मानसिक विषमता को दूर करने के अनेक उपाय बतलाये गये हैं यथा- अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकान्त, समता, ध्यान, कायोत्सर्ग आदि ऐसे अनेक पहलू हैं जिनके परिप्रेक्ष्य में हम तनावों से मुक्त होने का उपाय खोज सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र का आशावादी दृष्टिकोण
वर्तमान की प्रमुख समस्या यह भी है कि आज का मानव निराशा, हताशा एवं कुण्ठा से ग्रसित होता जा रहा है। एक ओर आकांक्षा और इच्छाओं का अम्बार तथा दूसरी ओर धैर्य के साथ अनवरत पुरूषार्थ की कमी; जो हताशा और कुण्ठा को जन्म देते हैं। व्यक्ति मन्जिल की ओर कदम बढ़ाते समय हल्की सी असफलता मिलने पर वहीं हताश होकर बैठ जाता है। ऐसे में वह कभी-कभी लक्ष्य के निकट पहुंचकर भी वंचित रह जाता है। जीवन के प्रति इस निराशावादी दृष्टिकोण से मुक्ति के लिये उत्तराध्ययनसूत्र एक आशावादी दृष्टि प्रदान करता है । उसमें कहा गया है :
'अज्जेवाहं न लभामि, अवि लाभो सुए सिया। .. जो एवं पडिसंचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए ।।27
- 'आज मुझे नहीं मिला, परन्तु सम्भव है कल मिल जाय', जो इस प्रकार सोचता है, उसे अलाभ नहीं सताता। यह बात बहुत गहरी है । प्रभु महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक साधना की; मात्र वे इस आशा पर डटे रहे कि आज सर्वज्ञता
२१ उत्तराध्ययनसूत्र २/३१ ।
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