Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Vinitpragnashreeji
Publisher: Chandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust

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Page 648
________________ ५८३ चारित्रिक मूल्य या सदाचार होना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र स्पष्ट रूप से कहता है कि महत्त्व इस बात का नहीं है कि व्यक्ति का जन्म किस जाति एवं कुल में हुआ है अपितु इस बात का है कि उसने सदाचार और अध्यात्म को जीवन में कितना स्थान दिया है। जातिपूजा और व्यक्तिपूजा दोनों ही अनुचित है, आवश्यकता है सदाचार की पूजा की और उत्तराध्ययनसूत्र हमें यही शिक्षा देता है। (२) आर्थिक विषमता आर्थिक विषमता आज के युग की ज्वलन्त समस्या है । इस समस्या का मूल कारण मानव की संग्रह एवं संचय की वृत्ति है। आज · का मानव भौतिक सुख-समृद्धि की अपेक्षा जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये नहीं वरन् अपनी तृष्णा के कारण करता है। आज के मानव को पेट से अधिक पेटी की चिन्ता है। आकांक्षा की पराकाष्ठा का उल्लेख करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक गाथायें प्रस्तुत की गई है जिनमें कहा गया है 'लाभ के साथ-साथ लोभ बढ़ता जाता है । इच्छायें आकाश के समान अनन्त होती हैं; वे सोने, चांदी के असंख्य पर्वतों को प्राप्त कर लेने पर भी तृप्त होने वाली नहीं है। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र मानव के लिये यह महत्त्वपूर्ण सन्देश देता है कि इच्छायें कभी तप्त नहीं होती हैं, अतः इच्छाओं का परिसीमन करना चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र का अपरिग्रह सिद्धान्त भी यही सन्देश देता है कि इच्छाओं के सीमांकन एवं अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा आज के युग में व्याप्त आर्थिक विषमता से छुटकारा पाया जा सकता है। आज के युग का भ्रष्टाचार जैसे घूसखोरी, खाद्य पदार्थों में मिलावट, व्यापार सम्बन्धी घोटाले, कालाबाजारी आदि अनियन्त्रित भोगेच्छा एवं संग्रहेच्छा के ही परिणाम हैं। उत्तराध्ययनसूत्र हमें इनसे उपर उठने का सन्देश देता है। १५ उत्तराध्ययनसूत्र ८/१७; ६/४८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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