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इसमें अरिहंत के तीन, अरहंत के चार तथा भगवान के दो अन्वयार्थ किये गये हैं। शेष नामों के एक-एक अन्वयार्थ किये गये है।
अन्य प्रकीर्णक इन प्रकीर्णकों के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रकीर्णक हैं। उनमें से कुछ के नाम निम्न हैं
तित्थोगाली, अजीवकल्प, सिद्धपाहुड (सिद्धिप्राभृत), आराहणपहाया (आराधनापताका), दीवसायरपण्णति (द्वीपसागरप्रज्ञप्ति), जोइसकरंडक (ज्योतिष्ककरंडक), अंगविज्जा (अंगविद्या), तिहिपइण्णग, सारावलि, पज्जंताराहण (पर्यन्ताराधना), जीवविहत्ति (जीवविभक्ति), कवचप्रकरण, जोणिपाहुड आदि।
इन प्रकीर्णकों में विशेषतया जीवन शोधन की कला का वर्णन किया गया है। कुछ ग्रन्थों में ज्योतिष, निमित्त आदि विषयों पर भी विचार किया गया है। विस्तारभय से हमने यहां इन सब की विषयवस्तु का विवेचन नहीं किया है।
१.५ जैन आगमों में उत्तराध्ययनसूत्र का स्थान
___उत्तराध्ययनसूत्र (उत्तरज्झयणाणि) अर्धमागधी साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है। नन्दीसूत्र के वर्गीकरण के अनुसार उत्तराध्ययनसूत्र को अंगबाह्य, आवश्यक-व्यतिरिक्त कालिक सूत्रों में प्रथम स्थान प्राप्त है। वर्तमान में प्रचलित आगमों के वर्गीकरण के अन्तर्गत इसका स्थान मूल आगमों में है। दिगम्बरपरम्परा में बारह अंग एवं चौदह अंग-बाह्य आगम माने गये हैं। उसमें अंगबाह्य के अन्तर्गत उत्तराध्ययनसूत्र का आठवां स्थान है।
. श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में ग्यारह अंग, बारह उपांग, छ: छेद, चार मूल, दो चूलिका एवं दस प्रकीर्णक माने गये हैं। उसमें उत्तराध्ययनसूत्र का नाम मूल आगमों में मिलता है। श्वेताम्बर जैनपरम्परा के अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय अर्थात् स्थानकवासी एवं तेरापंथी बत्तीस आगम मानते हैं, परन्तु वे भी उत्तराध्ययनसूत्र को तो मूल आगम के रूप में ही स्वीकार करते हैं।
६२ 'नन्दीसूत्र' ७८
- ('नवसुत्ताणि' लाडनूं पृष्ठ २६७ )।
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