Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Vinitpragnashreeji
Publisher: Chandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust

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Page 644
________________ ५७६ 8 लिप्त नहीं रहता वही सच्चा ब्राह्मण है और भी इसमें ब्राह्मण की विशिष्ट व्याख्या की गई है, किन्तु यहां उसकी चर्चा करना पिष्टपेषण होगा; क्योंकि उस सबकी चर्चा इसी ग्रन्थ के चौदहवें अध्याय में की जा चुकी है । इस समस्त चर्चा का निष्कर्ष तो इतना ही है कि व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार उसका सदाचरण है; किसी जाति या वर्ण विशेष में जन्म लेना नहीं । यह उस युग में प्रचलित जन्मना, जातिवाद या वर्ण व्यवस्था के प्रति करारा प्रहार था । इसने लोगों को नई दिशा में सोचने को विवश किया कि व्यक्ति की श्रेष्ठता का मापदण्ड किसी जाति विशेष में जन्म लेना नहीं हो सकता है, उसकी श्रेष्ठता का आधार तो उसका आध्यात्मिक विकास और सदाचरण है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थ महाभारत ( वनपर्व) एवं बौद्ध परम्परा 'सुत्तनिपात' में भी ब्राह्मण के इन्हीं गुणों का उल्लेख किया गया है । ' यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप वैदिक कर्मकाण्डों पर प्रहार करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र ने यज्ञयाग की कर्मकाण्डी परम्परा का विरोध किया और यज्ञ को एक नया आध्यात्मिक अर्थ प्रदान किया। उत्तराध्ययनसूत्र में यज्ञ की नवीन आध्यात्मिक परिभाषा प्रस्तुत करते हुए उस युग में प्रचलित हिंसात्मक यज्ञ के स्थान पर आध्यात्मिक यज्ञ की प्ररूपणा की गई है। इसके बारहवें अध्ययन में कहा गया है कि तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन वचन और काया की प्रवृत्तियां कलछी (चम्मच) है और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है; यही यज्ञ संयमयुक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक है; ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है। 10 • हरिकेशी मुनि हिंसात्मक यज्ञ को पापकार्य घोषित करते हुये कहते हैं कि जहां अग्नि का समारम्भ है वहां हिंसा है और हिंसा के साथ पापकर्म जुड़ा हुआ है ही। इसके साथ ही उसके पच्चीसवें यज्ञीय नामक अध्याय में भी यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्डों को नया अर्थ दिया गया है। उसमें कहा गया है कि वेदों का मुख उत्तराध्ययनसूत्र २५/२५ एवं २६ । ६ (क) महाभारत ३१३ / १०८ - उद्धृत् 'जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २, पृष्ठ १८१ । (ख) देखिए- 'जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग २, पृष्ठ १७६ । १० 'तवो जोइ जीवो जाइठाणां, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं । कम्मं एहा संजमजोग संती, होमं हुणामी इसिणं पसत्यं ।।' उत्तराध्ययनसूत्र १२ / ४४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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