Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Vinitpragnashreeji
Publisher: Chandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust

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Page 642
________________ में समृद्धि के साथ शान्ति लाने के लिये विज्ञान का अध्यात्म द्वारा अनुशासित होना अत्यन्त आवश्यक है । ५७७ उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है:- 'अप्पणा सच्चमेसेज्जा, मेत्तिं भूसु कप्पए' । यह सूत्र परम वैज्ञानिक दृष्टि का परिचायक है; इसमें कहा गया है:'अपना सत्य खोजो एवं सब के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार करो। व्यक्ति स्वयं के परिप्रेक्ष्य में सत्य का अन्वेषण करे, अपनी अनुभूति के आधार पर शाश्वत् सत्य को भी सामयिक सत्य बनाये। क्योंकि दिया हुआ सत्य या आरोपित सत्य पूर्ण नहीं होता है। साथ ही इसमें दूसरी बात यह कही गई है कि 'प्राणी मात्र के साथ मैत्री स्थापित करो । यह सूत्र विज्ञान की संहारक शक्ति को अनुशासित करने में अत्यन्त सहायक है। कितनी मार्मिक बात इस सूत्र में कह दी गई कि स्वयं का सत्य स्वयं के द्वारा शोधित हो, साथ ही प्राणी मात्र के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार हो । वस्तुतः सत्य स्वयं के अनुभव से ही प्रसूत होना चाहिए क्योंकि ऐसा सत्य ही जीवन का यथार्थ मार्ग दृष्टा होता है। आध्यात्मिक या आन्तरिक सत्य की खोज से अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के सिद्धान्त उपलब्ध होते हैं। आत्मविज्ञान या भेद विज्ञान के ये सिद्धान्त आज अध्यात्म जगत के ही नहीं वरन् व्यवहारिक जीवन के भी आधार बन चुके हैं। आज हिंसा, वैचारिक संघर्ष जातिवाद, रूढ़िवाद एवं परिग्रह तथा पर्यावरण की समस्याओं ने मनुष्य को अहिंसा, अनेकान्त एवं अपरिग्रह के सिद्धान्तों के महत्त्व को विशेष रूप से समझने के लिए बाध्य किया है। उत्तराध्ययनसूत्र की शिक्षायें हमारे जीवन के विविध पक्षों में किस प्रकार उपयोगी सिद्ध हुई हैं इसे हम अग्रिम बिन्दुओं के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत कर रहे हैंकर्मकाण्ड एवं रूढ़िवाद से मुक्ति उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक प्रसंगों में बाह्य कर्मकाण्ड एवं रूढ़िवाद से मुक्त होने की प्रेरणा दी गई है, साथ ही इसमें धर्म के नाम पर प्रचलित कर्मकाण्ड एवं आडम्बरों के खण्डन हेतु भी तीव्र प्रहार किये गये हैं। कर्मकाण्ड एवं रूढ़िवाद के अन्तर्गत उस युग में धर्म के नाम पर प्रचलित ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता, यज्ञयाग, पशुबलि, मांसाहार आदि का खुला विरोध किया गया है। ३ उत्तराध्ययनसूत्र ६/२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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