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(३) अग्नि में जलकर मरना; (४) जल में कूदकर मरना तथा
(५) मर्यादा से अतिरिक्त उपकरण रखना।
इस प्रकार शस्त्र प्रयोग, विषभक्षण तथा अग्नि एवं जल में प्रवेश करके . अपनी अज्ञानता या अविवेक का परिचय मोहीभावना है।
प्रवचनसारोद्धार में भी मोहीभावना के निम्न पांच लक्षण बतलाये
(१) उन्मार्ग देशना - मार्ग के विपरीत देशना या उपदेश उन्मार्ग देशना है।
दूसरे शब्दों में मिथ्यादर्शन एवं अव्रत का उपदेश
उन्मार्ग देशना है। (२) मार्ग दूषण - जिन प्ररूपित मार्ग में दोष देखना मार्ग दूषण है। (३) मार्ग विप्रतिपति - जिन प्रणीत मार्ग में श्रद्धा का अभाव मार्ग विप्रतिपति
है। यह जिन मार्ग के विपरीत आचरण है। (४) विमोह - प्रकृष्टरूप से मोह अर्थात् प्रमत्तता और अविवेक की
दशा में रहना विमोह है। (५) मोहजनन - स्वभाव की विचित्रता एवं मोहं के वशीभूत होकर दूसरे
व्यक्तियों में मोह उत्पन्न करना मोहजनन है।
समाधिमरण करने योग्य परिस्थिति
समाधिमरण किन परिस्थितियों में किया जाना चाहिये ऐसा कोई स्पष्ट उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र में समाधिमरण में नहीं मिलता है। फिर भी इसमें वर्णित साधक की चर्चा से इस सन्दर्भ में कुछ संकेत अवश्य प्राप्त होते हैं। इसके द्वितीय परीषह अध्ययन में साधक को वध परीषह सहन करने की शिक्षा देते हुए कहा गया है कि किसी के मारने-पीटने पर भी भिक्षु यह चिन्तन करे कि आत्मा का कभी नाश नहीं होता है । वह समभाव को धारण करे।
५० प्रवचनसारोद्धार ६४६ ।
५१ उत्तराध्ययनसूत्र २/91 Jain Education International
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