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होता है। यहां ज्ञातव्य है कि निरतिचार एवं सातिचार दोनों छेदोपस्थापनीयचारित्र में पूर्व आचंरित दीक्षापर्याय का छेद होता है अर्थात् इसमें पूर्वसंयमपर्याय न्यून कर दी जाती है तथा संघ में उसकी वरिष्ठता उसी दिन से मानी जाती है। .
इस प्रकार साधु जीवन में वरिष्ठता और कनिष्ठता का आधार छेदोपस्थापनीयचारित्र है। वर्तमान में इसे बड़ी दीक्षा के नाम से भी जाना जाता है। आचार्य वीरनन्दी के अनुसार छेद का अर्थ भेद या विभाग है; अतः जिसमें सावद्य व्यापारों का विभागशः अर्थात् नाम पूर्वक त्याग किया जाय, जैसे अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि, वह छेदोपस्थापनीयचारित्र है।" ३. परिहारविशुद्धि :
परिहार अर्थात् गण या संघ से अलग होकर एक विशिष्ट प्रकार के तपश्चरण के द्वारा आत्मा की विशेष शुद्धि करने की साधना परिहारविशुद्धिचारित्र है। इसमें मुनि संघीय जीवन का परिहार करके कुछ विशिष्ट साधकों के साथ तप साधना करते हैं। ४. सूक्ष्मसम्परायचारित्र :
जिससे संसार भ्रमण होता है उसे सम्पराय कहते हैं । कषायों के कारण जीव का संसार में भ्रमण होता है। अतः कषाय को सम्पराय कहा जाता है। इस प्रकार जिस चारित्र में कषायों का सूक्ष्मीकरण हो वह सूक्ष्मसम्परायचारित्र हैं। शास्त्रीय शब्दावली में जहां मात्र सूक्ष्म अर्थात् संज्वलनलोभ कषाय (देहभाव) को छोड़कर अन्य सभी कषाय क्षीण हो जाये, वह सूक्ष्मसम्परायचारित्र है। यह दशम गुणस्थानवर्ती साधुओं को होता है।
५. यथाख्यातचारित्र :
यह चारित्र की अन्तिम तथा सर्वोच्च अवस्था है। इसमें दो शब्द है यथा + आख्यात अर्थात् जिनेश्वर परमात्मा ने जैसा आख्यात/निरूपित किया है उसके अनुसार विशुद्ध चारित्र का पालन जिसमें हो वह यथाख्यातचारित्र है। इसमें
६१ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५६८ (शान्त्याचार्य) । १२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५६८ (शान्त्याचार्य) ।
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