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व्रत कहा जाता है अथवा 'विरतिव्रतम्' अर्थात् हिंसा आदि से विरत होना या इनका त्याग करना व्रत है। हिंसा आदि से निवृत्ति आंशिक भी होती है और पूर्ण भी। हिंसादि से आंशिक विरति को अणुव्रत तथा इससे सर्वथा निवृत्ति को महाव्रत कहते है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा विवेच्य विषय श्रावक के बारह व्रत हैं।
___ उत्तराध्ययनसूत्र में बारहव्रत सम्बन्धी कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इसमें हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील एवं परिग्रह से विरत होने की प्रेरणा अवश्य दी गई है । साथ ही इसकी टीकाओं में अनेक स्थलों पर श्रावक के. देशविरति रूप सामान्य धर्म का उल्लेख मिलता है। देशविरति व्रत वस्तुतः बारहव्रतों का ही द्योतक है। श्रावक के बारह व्रतों का विस्तृत विवरण उपासकदशांगसूत्र में किया गया है।
बारह व्रतों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जाता है- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत। अपेक्षाभेद से इन्हें निम्न दो भागों में भी बांटा गया है- पाच अणुव्रत एवं सात शिक्षाव्रत किन्तु वर्तमान में पूर्वोक्त विभाग ही प्रचलित है।
एक गृहस्थ श्रावक अहिंसादि व्रतों का पालन पूर्ण रूप से नहीं कर पाता है। अतः वह उन्हें उतने ही अंश में स्वीकार करता है जहां तक वह उनका प्रामाणिकता से पालन कर सके; वह अणु अर्थात् सीमित रूप में ही व्रत ग्रहण करता है। यही कारण है कि श्रावक के ये अहिंसादि पांच व्रत अणुव्रत कहलाते हैं।
गुण का एक अर्थ विशेषता भी होता है। अतः श्रावक के पांच अणुव्रतों के पालन में जो व्रत विशेष सहायक एवं उपकारक होते हैं, वे गुणव्रत कहलाते हैं। शिक्षा का अर्थ अभ्यास या प्रशिक्षण होता है । अतः आध्यात्मिक जीवन के अभ्यास के हेतुभूत जो सामायिक, पौषध आदि व्रत हैं, वे शिक्षाव्रत कहलाते हैं।
इन बारह व्रतों में अणुव्रत के क्रम में कोई अन्तर नहीं है परन्तु गुणव्रतों एवं शिक्षाव्रतों के क्रम में कुछ भिन्नता पाई जाती है। जहां तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें भी अणुव्रतों के नाम एवं क्रम में कहीं कोई भिन्नता नहीं है। किन्तु गुणव्रत एवं शिक्षाव्रत के संदर्भ में कुछ भिन्नता अवश्य है जिसका स्पष्टीकरण हम इन व्रतों की स्वतंत्र चर्चा के संदर्भ में प्रस्तुत करेंगे -
१६. उपासकदशांग - १/२३
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड ३, पृष्ठ ३६६) ।
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