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बाधक होते हैं। दर्शनावरणीयकर्म के इन भेदों का क्रम प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार आदि ग्रन्थों में कुछ भिन्न है।
(३) वेदनीयकर्म जिस कर्म के द्वारा सुख-दुःख का अनुभव किया जाए वह वेदनीयकर्म कहलाता है। वेदनीयकर्म को शहद से लिप्त तलवार की उपमा दी जाती है। जैसे शहद से लिप्त तलवार चाटने पर तो सुखद व मधुर लगती है; लेकिन तलवार से जिह्वा के कट जाने पर दुःख होता है; वैसे वेदनीयकर्म बन्धन के समय सुखद प्रतीत होता है पर विपाक के समय अत्यन्त दुःखद होता है।
___ उत्तराध्ययनसूत्र में इसके मुख्य दो भेद किए गये हैं - (१) सातावेदनीय - शारीरिक एवं मानसिक सुखद सम्वेदनाओं का कारण सातावेदनीयकर्म हैं।
(२) असातावेदनीय- शारीरिक एवं मानसिक दुःखद सम्वेदनाओं का कारण असातावेदनीयकर्म है।
सातावेदनीय तथा असातावेदनीय के भी अनेक भेद होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में भी इनके सम्पूर्ण भेदों के नामों का उल्लेख नहीं है। सातावेदनीय में मात्र अनुकम्पा आदि का तथा असातावेदनीय में पीड़ा, शोक, सन्ताप आदि का उल्लेख किया गया है।
प्रज्ञापनासूत्र में सातावेदनीय एवं असातावेदनीय इन दोनों कर्मों के आठ-आठ प्रकारों का उल्लेख मिलता है।" सातावेदनीय के आठ प्रकारमनोज्ञशब्द, मनोज्ञरूप, मनोज्ञरस, मनोज्ञगंध, मनोज्ञस्पर्श, कायसुख, वाणीसुख और मनसुख हैं। इसके विपरीत असातावेदनीय के भी आठ भेद हैं, यथा- अमनोज्ञशब्द, अमनोज्ञरूप आदि।
- (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ २८६); - (नवसुत्ताणि, पृष्ठ ३३६)।
२४ (क) प्रज्ञापना २३/१४
(ख) अनुयोगद्वार २८२ २५ 'वयणीयं पि दुविहं, सायमसायं च आहियं ।
सायस्स उ बहू भेया, एमेव असायस्स वि ।।' २६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका (आगमपंचांगी क्रम ४१/५)
(क) पत्र - ३१८३ (ख) पत्र - ३१८६ २७ प्रज्ञापना २३/१५ एवं १६
- उत्तराध्ययनसूत्र ३३/७ ।
- (गणिभावविजय जी); - (नेमिचन्द्राचार्य)। - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ २८६)।
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