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वाले, सिद्धगतिगामी आत्माओं के भी दृष्टान्त दिये गये हैं । अन्त में अनित्य, अशरण आदि भावनाओं पर भी प्रकाश डाला गया है । "
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इन दस प्रकीर्णकों में कुछ आचार्यों ने अन्य दो प्रकीर्णकों को छोड़कर उनके स्थान पर चन्द्रवेध्यक और वीरस्तव प्रकीर्णक को भी सम्मिलित किया है, अतः इन दोनों का भी यहां उल्लेख किया जा रहा है
चन्द्रवेध्यक
चन्द्रवेध्यक (चन्दवेज्झय) प्रकीर्णक में राधावेध की उपमा देते हुए साधक को अप्रमत्त रहने का उद्बोधन दिया गया है। जैसे सुसज्जित राधावेध करने वाला व्यक्ति अल्प प्रमादवश राधावेध नहीं कर सकता, उसी प्रकार जीवन की अन्तिम घड़ियों में किञ्चित् मात्र भी प्रमाद करने वाला साधक सिद्धि का वरण नहीं कर पाता। अतः आत्मार्थी को सदा सर्वत्र अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिए।
प्रस्तुत प्रकीर्णक में विनय, आचार्यगुण, शिष्यगुण, विनयनिग्रहगुण, ज्ञानगुण, चरणगुण एवं मरणगुण- इन सात विषयों पर विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें १७५ गाथायें हैं।
वीरस्तव
इस प्रकीर्णक में प्रभु महावीर की स्तवना होने से इसका नाम वीरस्तव रखा गया है। इसमें प्रभु महावीर के अनेक नामों का उल्लेख किया गया है। इसमें ४३ गाथायें हैं । २६ नामों का अलग-अलग अन्वयार्थ भी दिया गया है । प्रभु महावीर के छब्बीस नाम निम्न है
१.
८.
अरूह २. अरिहंत ३. अरहंत ४. देव ५. जिन ६. वीर ७. परमकारूणिक सर्वज्ञ ६. सर्वदर्शी १०. पारंग ११ त्रिकालविद् १२. नाथ १३. वीतराग १४. केवली १५. त्रिभुवनगुरू १६. सर्व १७. त्रिभुवनवरिष्ट १८. भगवन् १६. तीर्थंकर २०. शक्रनमस्कृत २१. जिनेन्द्र २२. वर्धमान २३. हरि २४. हर २५. कमलासन और २६. बुद्ध
६१ 'मरणसमाधि' गाथा ५७२ से ६३८ ।
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