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एक बार हरिकेश मुनि एक यक्ष मन्दिर में ध्यानस्थ खड़े थे। वहां राजकुमारी भद्रा का आगमन हुआ । मुनि के कृश एवं कुरूप काया को देखकर उसका मन घृणा से भर गया। उसने मुनि पर थूक दिया। मुनि के इस अपमान को यक्ष सहन नहीं कर सका। उसने राजकुमारी को भयंकर रोग से पीड़ित कर दिया। राजा ने अनेक उपाय किये पर रोग का निदान नहीं हो सका। तब यक्ष ने कहा कि यदि यह मुनि के साथ विवाह करे तो स्वस्थ हो सकती है। बात मान कर; राजा ने मुनि के समक्ष राजकुमारी के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा । मुनि ने कहा कि वे तो विरक्त हैं। विवाह की बात वे कदापि स्वीकार नहीं कर
सकते।
आखिर, राजा ने यह सोचकर कि ब्राह्मण भी ऋषि का रूप होते हैं । भद्रा का विवाह राजपुरोहित रूद्रदेव के साथ कर दिया।
इधर हरिकेशबल मुनि एक माह के उपवास के पश्चात् भिक्षा की खोज में निकले और उसी यज्ञ मण्डप में आ पहुंचे जहां पुरोहित रूद्रदेव यज्ञ करवा रहा था। वहां ब्राह्मणों ने मुनि को अनेक प्रकार से अपमानित किया। तब राजकुमारी भद्रा ने आकर सभी को समझाया कि ये मनि जितेन्द्रिय हैं, महान साधक हैं। इनका अपमान मत करो क्योंकि मुनि का अपमान करना नखों से पर्वत खोदने, दांतों से लोहे के चने चबाने, और पावों से अग्नि पर चलने के समान हानिकारक है। राजकुमारी की प्रेरणा से सभी ब्राह्मणों ने मुनि से क्षमा मांगी और मुनि को भिक्षा दी; पश्चात् मुनि ने ब्राह्मणों को प्रतिबोध दिया। मुनि ने हिंसात्मक यज्ञ की निरर्थकता सिद्ध कर वास्तविक आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का प्रतिपादन किया। प्रस्तुत अध्ययन में मुनि के यज्ञशाला में प्रवेश के बाद के प्रसंग का वर्णन है।
इसमें आध्यात्मिक यज्ञोचित सामग्री का विशद वर्णन किया गया है। और उपसंहार में यह भी बताया है कि आध्यात्मिक यज्ञ ही वास्तव में मुक्ति का साधन/कारण है। ___ संक्षेप में इस अध्ययन के मुख्य विषय निम्न हैं -
(१) दान के अधिकारी (गाथा १२-१८) (२) जातिवाद
(गाथा ३६) (३) आध्यात्मिक यज्ञ (गाथा ३८, ३६, ४२ व ४४) (४) आध्यात्मिक स्नान (गाथा ४५, ४६ व ४७)
६६ 'गिरिं नहेहिं खणह, अयं दंतोहिं रवायह ।
जायतेयं पाएहि हणह, जे भिक्खुं अवमन्नह ॥' - उत्तराध्ययनसूत्र १२/२२, २३ व २६ । .६७ 'तवो जोइ जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं कारिसंगं ।
कम्म एहा संजमजोग सन्ती, होमं हुणामी इसिणं पसत्यं ।। धम्मे हरए बंभे सन्तितित्थे, अणाविले अत्तपसन्न लेसे । जहिंसि जहाओ विमलों विसुद्धो, सुसीइभुओ पजहामि दोसं ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र १२/४४ व ४६ ।
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