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(-) अन्तराय कर्म
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उपलब्धि में बाधक हो। नाले पुद्गल ।
इन आठ कर्मों की अवान्तर प्रकृतियां निम्न हैं -
ज्ञानावरण कर्म की पांच, दर्शनावरण की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठाईस, आयुष्य की चार, नाम कर्म की बयालीस, गोत्र कर्म की दो एवं अन्तराय कर्म की पांच । इनकी विस्तृत विवेचना ‘उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित कर्म मीमांसा नामक छट्टे अध्याय में की गई है। ३४. लेश्याध्ययन : उत्तराध्ययनसूत्र के चौंतीसवें अध्ययन का नाम 'लेसज्झयणं है। इसका अधिकृत विषय ‘लेश्या' (शुभाशुभ मनोवृत्तियां) हैं। यह अध्ययन ६१ गाथाओं में निबद्ध है।
"लेश्या जैनपरम्परा का पारिभाषिक शब्द है। जैन विचारकों के अनुसार जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है अथवा जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है, वह लेश्या है। इस प्रकार लेश्या शुभाशुभ कर्मों के विपाक एवं बन्ध का हेतु है।
जैनागमों में लेश्या के दो प्रकार बतलाये हैं - ' (१) द्रव्यलेश्या और (२) भावलेश्या ।
व्यक्ति की मनोवर्गणा के वर्ण एवं आणविक आभामण्डल को द्रव्य लेश्या/पौद्गलिक लेश्या और विचार को भावलेश्या/मानसिक परिणाम कहा जाता है। ज्ञातव्य है कि द्रव्यलेश्या भावलेश्या का हेतु एवं परिणाम है।
प्रस्तुत अध्ययन में मुख्यतः द्रव्यलेश्या का विश्लेषण किया गया है। अतः इसमें इनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि का भी उल्लेख हुआ है। यह मानव की मनोभूमिका का एक रेखा चित्र खींचता है। आज के विज्ञान ने भी मानव मस्तिष्क में स्फुरित होने वाले विचारों के चित्र लिए हैं, जिनमें विभिन्न रंग उभरे हैं।
लेश्या का विस्तृत विवेचन ‘उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित मनोविज्ञान' नामक तेरहवें अध्याय में किया गया है।
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