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एवं प्रत्येक दोनों के अनेक प्रकार हैं, परन्तु उनके कुछ भेदों का ही निरूपण उत्तराध्ययनसूत्र में किया गया है। (क) प्रत्येक वनस्पतिकाय : उत्तराध्ययनसूत्र में प्रत्येक वनस्पतिकाय के भेद जातिगत आधार पर बतलाये गये हैं। प्रत्येक शरीर के अनेक भेद हैं उत्तराध्ययनसूत्र में निम्न बारह भेद निर्दिष्ट है- (१) वृक्ष (२) गुच्छ (३) गुल्म- नवमालिका. (४) लता - चम्पकलता आदि (५) वल्ली - करेला ककड़ी आदि की बेलें (६) तृण- दूर्वा, घास आदि (७) लतावलया- नारियल, केला आदि (८) पर्वज- संधि से उत्पन्न होने वाले ईख बांस आदि (६) कुहण- (कु-पृथ्वी, हण-भेदने वाली) भूमिस्फोट आदि (१०) जलरूह- कमल आदि (जल में उत्पन्न) (११) औषधि त्रय- जौ, आदि और (१२) हरितकाय आदि। (ख) साधारण वनस्पतिकाय : साधारण वनस्पतिकाय के उत्तराध्ययनसूत्र में निम्न २२ नामों का उल्लेख करके फिर कह दिया गया है कि ऐसे अनेक प्रकार हैंआलू, मूली, श्रृंगबेर (अदरक), हिरिलीकन्द, सिरिलीकन्द, जावईकन्द, केद-कंदलीकन्द, पलाण्डु (प्याज), लहसुन, कन्दली, कुस्तुम्बक, लोही, स्निहु, कुहक, कृष्ण, वजकन्द, सूरणकन्द, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, मुसुंढी, और हरिद्रा आदि। ऊपर लिखित नामों में कई नाम प्रसिद्ध एवं कई अप्रसिद्ध हैं। इनका परिचय अलग-अलग देश की भाषा विशेष से हो सकता है। जैनपरम्परा में साधारण वनस्पतिकाय को जमीकन्द एवं अनन्तकाय भी कहा गया है। इसके लक्षण का वर्णन करते हुये 'जीवविचार प्रकरण में कहा गया है- जिनकी नसें, संधियां और गांठे गुप्त हों, जिनको तोड़ने से समान टुकड़े हों, जो काटने पर भी पुनः उग जाये उन्हें साधारण वनस्पतिकाय कहते हैं। इससे विपरीत प्रत्येक वनस्पतिकाय है।
त्रसकाय के भेद (9) अग्निकायिक जीव : अग्निकायिक जीवों का शरीर तेजस् (अग्नि) से निर्मित होता है। इसके भी चार भेद हैं - सूक्ष्म-पर्याप्तक, सूक्ष्म-अपर्याप्तक, बादर पर्याप्तक एवं बादर-अपर्याप्तक। बादर पर्याप्तक अग्निकायिक जीव के अनेक प्रकार
५६ उत्तराध्ययनसूत्र, ३६/६४ से ६६ |
६० जीवविचारप्रकरण गाथा १२ । Jain Education International
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