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प्रकीर्णक सूत्र
सामान्यतः 'प्रकीर्णक' शब्द के विविध, बिखरे हुए, परचून आदि अनेक अर्थ किये जाते हैं किन्तु जैनसाहित्य के सन्दर्भ में प्रकीर्णक शब्द का विशिष्ट अर्थ किया गया है -
नन्दीचूर्णि के अनुसार 'अरहंतमग्गउपदिढे जं मणुसरित्ता किंचिं णिज्जूहंते (निर्मूठ) ते सत्वे पइणग्गा; अहवा सुत्तमणुसरतो अप्पणो. वयणकोसल्लेण जं धम्म देसणादिसु (गंथपद्धत्तिणा) भासते तं सत्वं पइण्णग'47 अर्थात् जिनमें अरिहंत के द्वारा उपदिष्ट मोक्षमार्ग का सूत्रानुसारी प्रतिपादन किया जाता है, वे प्रकीर्णक कहलाते हैं।
आगे हम आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित 'चतुःशरणादि मरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णक दशकं' के अनुसार दस प्रकीर्णक का विवेचन करेंगे१. चतुःशरण
चतुःशरण (चउसरण) प्रकीर्णक का दूसरा नाम 'कुशलानुबंधी भी है। इसमें ६३ गाथायें हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रतिपाद्य 'चार-शरण' है। इसमें इस अशरणभूत संसार में पीड़ित प्राणियों को उदबोधन देते हुए कहा गया है कि 'हे आत्मा ! तू चारों गति का हरण करने वाले अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवली प्ररूपित- सुखावह धर्म की शरण को स्वीकार कर। इन चार शरणों का विवेचन होने से इस ग्रन्थ का नाम चतुःशरण है। ये चार शरण ही आत्मा की कुशलता के हेतु हैं। कुशल का अनुबन्ध कराने वाले होने से इसे कुशलानुबन्धी प्रकरण भी कहा जाता है।
इसके प्रारम्भ में छ: आवश्यक पर प्रकाश डालते हुए बताया गया है कि “सामायिक' आवश्यक से चारित्र की शुद्धि होती है। 'चतुर्विशतिजिनस्तव' से दर्शन की विशुद्धि होती है, 'वन्दन' से ज्ञान में निर्मलता आती है। 'प्रतिक्रमण से ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों की शुद्धि होती है। 'कायोत्सर्ग' से आत्मविशुद्धि हेतु तप होता है और प्रत्याख्यान से पुरूषार्थ (वीर्य) की शुद्धता होती है।49
-- (उद्धृत -'प्रकीर्णक साहित्यः मनन और मीमांसा' पृष्ठ ६८)।
४७ 'नन्दीचूर्णि' पृष्ठ ६०; ४८ 'अरिहंत सिद्ध साहू, केवली कहिओ सुहावहो धम्मो।
ए ए चउरो चउगइहरणा, सरणं लहइ धम्मा ।।' ४६ चतुःशरण गाथा २, ५६ एवं ६०।
- चतुःशरण गाथा ११ ।
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