Book Title: Tulsi Prajna 1990 09
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ १. अंगप्रभवः -दूसरा अध्ययन (परीह्यविभत्ती) २. जिनभाषित:-दसवां अध्ययन (दुमपत्तयं) ३. प्रत्येक बुद्ध भाषितः-आठवां अध्ययन (काविलीयं) ४. संवाद समुत्थितः-नवां मोर तेईसवां अध्ययन (नमिपव्वज्जा) वादिदेव शांतिसूरि ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि उत्तराध्ययन सूत्र का दूसरा अध्ययन दृष्टिवाद से लिया गया है । द्रुमपुष्पिका नामक दसवां अध्ययन महावीर द्वारा प्ररूपित है । कापिलीय नामक आठवां अध्ययन प्रत्येकबुद्ध कपिल ने प्रतिपादित किया है तथा केशिगौतमीय नामक तेईसवां अध्ययन संवाद रूप में प्रतिपादित है। (उशाँटी १५:६) यद्यपि उत्तराध्ययन में सभी अध्ययनों की विषय वस्तु बहुत व्यवस्थित और सुनियोजित है फिर भी यह आशंका होती है कि क्या सभी अध्ययन एक व्यक्ति द्वारा निरूपित हैं । इस प्रश्न के समाधान में जेकोबी का मंतव्य है कि इस प्रथ में अभिव्यक्ति की भिन्नता है। शैली की भी भिन्नता है । एक लेखक की कृति में ऐसा नहीं हो सकता । पर ये सब कब रचे गए, इसका व्यवस्थित रूप कब बना, यह कहना कठिन है। किंतु वे अपनी मान्यता प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि इसका अधिकांश भाग बहुत पुराना है । कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि उत्तराध्ययन के प्रथम १८ अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन । किंतु इस मत की पुष्टि का कोई सबल प्रामण नहीं है। किंतु इतना निश्चित है कि इसके कई अध्ययन प्राचीन हैं तथा कई अर्वाचीन । ____ आचार्य श्री तुलसी के मंतव्यानुसार उत्तराध्ययन के अध्ययन ई० पू० ६०० से ईसवी सन् ४०० लगभग हजार वर्ष की धार्मिक एवं दार्शनिक धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा वीरनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद देवधिगणी ने प्राचीन एवं अर्वाचीन अध्ययनों का संकलन कर इसे एकरूप कर दिया । इन सब तथ्यों से यह सिद्ध होता है कि यह संकलनसूत्र है, एक कर्तृक नहीं। इसका प्रवचन भी किसी एक काल में न होकर विभिन्न समयों में हुआ है । विंटरनित्स इसी मत से सहमत हैं । कुछ अंश बादमें स्थविरों द्वारा जोड़े गए हैं। इसका प्रमाण है 'कोशिगौतमीय अध्ययन' । महावीर स्वयं अपने मुख से अपनी प्रशंसा नहीं करते । दूसरी बात सम्यक्त्व पराक्रम में जो प्रश्नोत्तर हैं वे अंगसूत्रों को प्रश्नोत्तर शैली से बिलकुल भिन्न हैं । जार्ल शान्टियर का अभिमत है कि यह प्रारम्भ में मूल रूप से बौद्ध ग्रंथ धम्मपद और सुत्तनिपात के समान था। प्रारम्भ में संभवतः इसमें सैद्धान्तिक विषयों का प्रतिपादन करने वाले अध्ययन नहीं थे। केवल संन्यासी जीवन की दिव्यता एवं अनेक आधार से सम्बन्धित धार्मिक कथाएं संकलित थीं । कालान्तर में यह अनुभव किया गया कि इसमें धार्मिक, सैद्धान्तिक, दार्शनिक विषयों का और समावेश किया जाए । अतः परवर्ती काल में इसमें सैद्धान्तिक, दार्शनिक आदि विषय जोड़ दिए गए । कुछ विद्वानों की अभिधारणा है कि उत्तराध्ययन में शुद्ध सैद्धान्तिक विषयों का प्रतिपादन करने वाला गद्य भाग अपेक्षाकृत अर्वाचीन और शेष भाग प्राचीन है। उत्तराध्ययन के दसवें अध्ययन तथा कल्पसूत्र, हरिवंशपुराण, त्रिषष्टिशलाका तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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