Book Title: Tulsi Prajna 1990 09
Author(s): Mangal Prakash Mehta
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 48
________________ दोनों शकराजाओं ने अपने-अपने तौर-तरीकों से 'शककाल स्थापित किए। साहसांक द्वारा स्थापित काल ६६ ईसवी से गणनाधीन हुआ, विक्रमांक द्वारा स्थापित शककाल ७८ ईसवी से प्रचलित हुआ। जरा स्मरण कर लें भारत सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय शक महाराजा शूद्रक का अमर स्मारक है। दो शककालों की विभाजक पहचान नाम-साम्य के कारण कहीं इनमें गड़बड़ न हो जाए--परवर्ती कालविद् महाशय ने इनकी भौगोलिक तथा प्रयोगान्वित पहचान स्थापित की है । यथा १. भौगोलिक विभाजन : रेवा नदी को विभाजक रेखा मानते हुए आचार्यों ने रेवा-उत्तर में ६६ ईसवी के शककाल के प्रचलन की स्वीकृति दी है और ७८ ईसवी के शककाल को रेवा-दक्षिण में ही रहने दिया है। ज्योतिषसार के अनुसार “स पंचाग्निकुभिः युक्तः कालः स्याद् विक्रमस्य हि । रेवाया उत्तरे तीरे संवन्नाम्नाति विश्रुतः ।" ज्योतिषसार यहां विक्रमादित्य के उल्लेख मात्र से ६६ ईसवी का शाककाल ग्राह्य है। २. प्रायोगिक विभाजन : प्रयोग की दृष्टि से दोनों शककाल अलग-थलग हो गए हैं। (क) ६६ ईसवी का शककाल इतिहास का माध्यम बन गया है, जबकि (ख) ७८ ईसवी का शककाल ज्योतिष गणना का साधन सिद्ध हो रहा है। इतिहास १. गुप्तसंवत् : अबूरिहां अलबरुनी का कहना है : शककाल के २४१ वें वर्ष में गुप्त-संवत् स्थापित हुआ, सो २४१+ ६६ - ३०७ ईसवी से गुप्त-संवत् की गणना साधु है । यथा १. चन्द्रगुप्त प्रथम ३०७ से-आईन-ए-अकबरी में लिखा है-विक्रमादित्य और २. समुद्रगुप्त ३१४ ई० से.- आदित्य पोवार में ४२२ वर्षों का व्यवधान है। ३. चन्द्रगुप्त द्वितीय ३६४ से- ई०पू० ५८+२६४ ई० = ४२२ वर्ष यथार्थ है। ईसवी सन् ७८+२४१ == ३१६ से गुप्त संवत् की स्थापना अशुद्ध है । २. लक्ष्मणसेन संवत् की गणना भी-ईसवी ६६+१०४१ शककाल ११०७ ई० गणनीय साधु है। ७८+ शककाल १०४१ १११६ ईसवी की स्थापना अनैतिहासिक होने से अमान्य है। ३. मौर्य संवत् ४०८-३४२ ....६६ ईसवी की गणना परम्परागत है, जब कि ४१८-७८ ... ३४० ई० पूर्व की स्थापना अपौराणिक होने से अमान्य है। निष्कर्षतः "वसु-चन्द्रकृतं तथा" का पाठान्तर प्रत्यारोपित होने से अमौलिक है और अमौलिक होने से अमान्य है। ४. वीर निर्वाण संवत् भी इसी संदर्भ में विचारणीय है । यति वृषभ के समय तक सप्तर्षि-संवत् प्रचलित रहा है। "चौदससहस्स सगसय तेणउदिवासकालविच्छेवे । वीरेसर सिद्धिदो उप्पणो सगणियो अहवा ॥"-गाथा क्रमांक १४६८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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